ग़ज़ल
कातिल चारागर लगता है,
हवा में घुला ज़हर लगता है
किसको दें आवाज़ यहां अब,
दुश्मन सारा शहर लगता है
जब से छूटा साथ तुम्हारा,
लंबा बहुत सफर लगता है
मिलना तो चाहता हूँ तुमसे,
पर दुनिया से डर लगता है
हर मुश्किल में राह दिखाए,
दिल तेरा रहबर लगता है
पैर फैलाऊँ थोड़े मैं जब,
दीवारों से सर लगता है
सबके लिए जगह है इसमें,
किसी गरीब का घर लगता है
— भरत मल्होत्रा