वज़ह
यूँ तो कहते हो हरदम
तुम्हारे हर दर्द से वाक़िफ़ हूँ मैं
समझता हूँ हर अनकही भी तुम्हारी
फिर ये जो दिखाते हो कभी कभी
इस बेरुख़ी की वजह क्या है?
आस लगाये देखती रहती हूँ
राह तुम्हारे आने की पर
आते भी हो तो ऐसे कि
जैसे कोई वास्ता नही मुझसे
इस बेरुख़ी की वजह क्या है?
माना कि रहते हो मसरूफ बहुत
ग़म और भी हैं मोहब्बत के सिवा
लेकिन हम भी तो थे कभी े
तेरे मंजूर-ए-नज़र तो आज
इस बेरुख़ी की वजह क्या है?
कहते तो नही कुछ भी जुबां से
लेकिन समझती हूँ ख़ामोशी तुम्हारी
एक बार तो कहो तुम भी दिल की
क्यों रहते हो मुझसे दूर पास होकर भी
इस बेरुख़ी की वजह क्या है?