कहानी

हवा

इस पहाड़ी इलाके में दूर-दूर तक हवा सनसनाती हुई गुज़र रही थी। कहीं-कहीं एक-आध मकान उसकी दौड़ के बीच आ जाते थे जिनके बरामदों, छतों या आंगनों में गोल-चक्कर लगाकर हवा फिर अपनी दौड़ में व्यस्त हो जाती थी। उसका उन्माद में यों बावली होकर खाली हाथ यहाँ से वहाँ दौड़ना केवल चाँद देख रहा था क्योंकि सारे पहाड़ी लोग अपने-अपने घर में साँझ को ही दुबक जाया करते हैं। दिन का इतनी जल्दी ढलना उनकी रातों को लम्बा कर रहा था और चांद उनको देखकर पागलों की तरह हंस रहा था जैसे कभी लू के समय सबको दुबका हुआ देखकर सूरज हंसता था।

शशांक ने अभी घर में कदम रखा ही था कि इंतज़ार में बेचैन माँ ने दरवाज़े पर ही रोक लिया। माँ का चेहरा देखकर ही शंशाक के कान रोज़ की घिसी-पिटी बातें सुनने के लिए अदब से खड़े हो गए।

रटे-रटाए विद्यार्थी कि तरह कान ने पहले ही सुन लिया कि – “कहाँ था अब तक। तुझे पता है न कि इस इलाके में बहुत सावधानी से चलना पड़ता है। कब क्या हो जाए कोई नहीं जानता। इन पहाड़ों में मौत साया बनके पीछे-पीछे चलती है और रात के अंधेरों में दबोच लेती है। इसलिए रोश्नी रहने तक घर लौट आने में ही भलाई है।“

शशांक जानता है सबकुछ मगर क्या करे। यहाँ सारे घर इतनी दूर-दूर हैं कि आने-जाने में ही घंटा भर लग जाता है फिर दोस्त के साथ थोड़ा समय भी नहीं बिताएगा तो उसके घर जाकर भी क्या करेगा। ऐसे में देरी होना तो स्वाभाविक है और उतना ही स्वाभाविक है माँ से यह सब सुनना।

मगर शशांक को यहाँ होने वाली अप्रत्याशित घटनाओं का उतना भान नहीं है जितना माँ को है। इसीलिए वह यह नहीं जान पाया कि आज का दिन ही या यों कहें कि रात ही कुछ अलग है और कुछ भी प्रत्याशित घटने वाला नहीं है। यहाँ तक माँ के बोले बोल भी आज प्रत्याशित नहीं हैं।

“तुझे पता है तेरे पीछे कितनी बड़ी घटना हो गई है?”

शशांक के कान इस बार अदब से ज्यादा चौंक के खड़े हो गए। “क्या हो गया माँ?”

“टून्नु चचा हैं न तेरे।“

“हूँ, क्या हुआ उनको।“

“उनको नहीं रे, उनकी अम्मा गुज़र गईं। तेरे चचा, बाबा और भय्या सब उनकी लाश तराई में बहाने गए हैं। क्रिया-करम करके लौटेंगे।“

“वो तो थीं भी आधी कब्र में। अच्छा है रोज़-रोज़ की ईमारी-बिमारी से छूटीं।“

“चुपकर नालायक। अच्छी-खासी तो थीं। हुआ तो कुछ नहीं था उन्हें। कहीं किसी चुड़ैल-उड़ैल का साया तो नहीं था।“

“चुप करो माँ। चुड़ैल-वुडैल कुछ नहीं होती। होती तो मुझे न मिलती। इस इलाके में जाने कब से सुन-देख रहा हूँ। कुछ नहीं है।“

“हाँ-हाँ ज्यादा शेर मत बन। तुने देखा ही कहाँ है कुछ।“

“अच्छा चल अम्मा। खाना दे-दे या बातों से ही मेरा पेट भरेगा।“

“खाना-वाना कुछ नहीं। चल जा सरपट टुन्नु चचा के घर को निकल ले।“

“क्यों बुढिया के क्रिया-कर्म के लिए?”

“नहीं रे। उसके लिए तो सब गए ही हैं। तू होता तो तेरे बाउजी तुझे साथ ही लिवा गए होते। मगर तूझे तो कितनी बार कहा किरन डूबने से पहले घर चले आया कर। मगर कहाँ।“

“हाँ-हाँ। मगर काम क्या है?”

“अरे नवल की नई बहू वहाँ अकेली होगी घर पर। किसी मर्द का होना चाहिए। तू छोटा है, तू चला जा।“

“कौन? वो भाभी?”

“हाँ-हाँ। बेचारी अकेली औरत। जाने कुछ खाया भी होगा। तू चला जाएगा तो कुछ मन लग जाएगा और डरेगी-वरेगी भी नहीं। फिर सब मर्द लोग तो भोर से पहले क्या लौटेंगे तराई से । “

“अच्छा हाथ-मुँह धो लूँ।“

“कुछ नहीं। बस निकल जा। ये शाल लेता जा। पहाडों में अकेले नहीं घूमा करते। नवल की बहू की चिंता न होती तो तुझे इस समय अकेले मैं जाने भी नहीं देती। चल निकल। नहीं तो ज्यादा रात घिर आएगी।“

घर से लगभग भगाया हुआ शशांक चांदनी में नहाई पगडंडियों और कच्चे रास्तों पर निकल गया। उसकी शाल हवा से लड़ रही थी जैसे कोई बार-बार उसे कंधे से उतार देने को उद्यत था। छिटकी चांदनी में नहाई पहाड़ी में दूर तक देखने पर बिल्ली के आकार सा दूधिया घर दीख पड़ रहा था। टुन्नु चाचा का घर।

उस घर के पीछे भी दूर-दूर पर घर थे; लगभग मटर के बराबर। किसी अजनबी को तो देखने पर पता भी नहीं चलेगा कि वो घर है। शशांक जान पा रहा था क्योंकि बचपन से देखता आया था।

बहुत देर चलने पर भी टुन्नु चाचा  का घर पास आने की बजाय दूर जाता ही दिख रहा था। शशांक ने अपने कदम और तेज़ बढ़ाए, और तेज़ बढ़ाए मगर घर दूर; और दूर होता चला गया। शशांक ने सोचा कब तक चलना पड़ेगा उसने लगभग दौड़ना शुरु किया कि पीछे से किसी ने कंधा थपथपाया।

शंशाक भय से पीछे मुड़ा तो उसकी शाल तेज़ हवा में उड़ गई। पीछे कोई नहीं था। सनसनाती हवा में पागल की तरह हंसने का शोर गूँज रहा था। जैसे कोई दोनों पहाड़ की चोटियों पर बैठा हंस रहा हो और हंसी तराई तक गूँजी चली जाती है।

शशांक भय से कांप गया। ऐसा पहले कभी कुछ नहीं हुआ था उसके साथ। किसी को न पाकर वह वापस अपनी राह पर मुड़ा तो देखा टुन्नु चाचा का घर जो थोड़ी देर पहले आधे किलोमीटर दूर दिखाई दे रहा था अब बिल्कुल सामने, दस कदम की दूरी पर था। शशांक फट से आगे बढ़ गया और लोहे के फाटक की कुंडी बजाई तो फाटक के दोनों दरवाज़े हिल गए और दोनों में दूरी आ गई तो शशांक चौंका –“अरे गेट खुला छोड़ गए सब। भाभी ने भी बंद नहीं किया, लगता है।“

शंशाक ने हौले से भीतर कदम रखा। पूरे आंगन में नज़र दौड़ाई तो एकदम खाली-खाली, सुनसान और मनहूस सा लगा। उसने दोनों मंजिंलों की खिड़्कियों, दरवाज़ों, बरामदों और सीढियों की नज़रों से छान-बीन की। कहीं कोई रोश्नी नहीं। एक दिया तक नहीं जल रहा है। बस घर और आंगन चांदनी में धुला हुआ है। क्या चाची सो गई?

उसने सहम कर धीरे से आवाज़ दी “भाभी”।

उसके ठीक पीछे से फटी हुई गंभीर आवाज़ आई “तुम आ गए। तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी।“

शंशाक थर्राकर पीछे मुड़ा और दो कदम पीछे हट गया। ठीक फाटक से लगकर भाभी खड़ी थी। हमेशा की तरह ठुड्डी तक आँचल काढ़े। भाभी की फटी हुई संजीदा आवाज़ उसके सीने में अभी तक गूँज रही थी और उसका दिल नगाड़े की तरह धड़क रहा था। भाभी तो बहुत हंसमुख हैं और इनकी आवाज़ की खनक पर तो सारे देवर वारे-न्यारे हो जाते हैं। आज भाभी को क्या हो गया है। कहीं शोक में रो-रोकर आवाज़ तो नहीं बैठ गई है इनकी। हो सकता है। मातम मनाने में घर की स्त्रियां कोई कसर नहीं छोड़ती।

यह सब सोचते हुए शशांक की धड़कने कुछ सामान्य हुईं।

“हाँ भाभी। मुझे तो बाउजी साथ ही ला रहे थे मगर मैं तो घर पर था ही नहीं। ही..ही..ही।“

शशांक ने देखा खींसे निपोरने पर भी भाभी बुत की तरह खड़ी हैं और उसे खुद से ग्लानि हुई कि वह इस संजीदा समय में हंसी-ठिठोली पर कैसे उतर आया। फिर उसे माँ की बातें याद आईं तो पूछ बैठा – “आपने कुछ खाया-वाया है या…?”

“तुम आ गए हो न। अब खाऊँगी।“

“अच्छा। क्या बना रही हो। मुझे भी ज़ोरों के भूख लगी है। माँ ने भी कुछ नहीं खिलाया बस भगा दिया। दौड़ा-दौड़ा आपके पास आया हूँ।“

“मांस”

शशांक चौंका “क्या?”

“मांस पकाऊँगी”

“अरे नहीं नहीं…..कुछ मामूली सा बना लो भाभी। आपकी तबियत भी ठीक नहीं लग रही।“

“तुम नहीं जानते क्या?”

“क्या?”

“इन पहाड़ों में खातिरदारी मांसाहार से होती है।“

“बेकार की तकलीफ मत लो…..”

“तकलीफ़, कैसी तकलीफ़? स्वादिष्ट मांस के लिए कोई तकलीफ, तकलीफ नहीं होती।“

शशांक ने सोचा शायद भाभी का बहुत मन है मांसाहार खाने का।

“ठीक है। जैसी आपकी मर्जी”

भाभी भी उनींदी सी बोली “मर्जी…मेरी मर्जी….हाँ मेरी मर्जी” और रसोईघर की ओर चली गई। आंगने के बीचों बीच पड़ी सूत की खटिया देख शशांक उसी पर लेट गया। दोनों बाहें सर के नीचे डाल वह आसमान के टिमटिमाते तारों में बुढिया दादी को ढूँढने लगा।

उसे सर के पीछे से भाभी की खनकती पायल की झंकार सुनाई दे रही थी जो भाभी की स्थिति का अंदाज़ा दे रही थी। वे अभी रसोईघर से निकलकर, आंगन पार करते हुए फाटक के पास लगे चंपाकल पर पहुँची हैं और लोहे की बाल्टी ज़मीन पर रखी है। चंपाकल चलाने की आवाज़ चूडियों के खनक के साथ हिल-मिल गई है।

शशांक ने करवट ली और भाभी को कुछ पूछने के इरादे से चंपाकल की तरफ देखा तो लगा भाभी चुपचाप खड़ी हैं मगर चंपाकल अपने आप चल रहा है और पानी बाल्टी में गिर रहा है। शशांक के सीने में धक सा हुआ। उसने एक हाथ से अपनी दोनों आँखें ठीक से मली और दुबारा देखा तो भाभी नल चला रही थी। उसे ही भ्रम हुआ।

वह भूल गया कि क्या पूछना था और उसका मन भी नहीं रहा कुछ बात करने का उसने दूसरी करवट ली। भाभी की पायल अब हिचकोले खाती बाल्टी के साथ सिरहाने से गुज़रते हुए बाईं ओर बनी रसोईघर की ओर जा रही थी। शशांक का मुँह तो रसोई घर की ओर ही था। उसने भाभी को रसोई में जाते देखा। मगर भाभी ने तो बल्टी पकड़ी ही नहीं। बल्टी निराधार सी हवा में ही उनके साथ चलती हुई रसोईघर में चली गई।

अब शशांक को यकीन हो गया कि कोई भ्रम नहीं है। वह सीधा होकर लेट गया। मगर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम थी। उसे यकीन हो गया था कि वह इस समय किसी चुड़ैल के कब्ज़े में है। वह उठकर बाहर भाग जाना चाहता था। मगर उसके पाँव थरथरा रहे थे। उसने बहुत हिम्मत जुटाई तो इतने में भाभी…चुड़ैल…भाभी रसोई से बाहर आ गई और रसोई की बाहरी दीवार से लगे सिल-बट्टे पर मसाला पीसने लगी।

शशांक को यकीन था कि सिल-बट्टा अपने आप चल रहा होगा। अब उसे देख कर यकीन करने की ज़रूरत नहीं है। वह चारपाई पकड़े दम-साधे पड़ा रहा। थोड़ी देर में एकदम सन्नाटा था। हवा की भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थी।

शंशाक का रोयां-रोयां साँस तक लेने से डर रहा था और वह लगातार आसमान को देखे जा रहा था। मगर धीरे-धीरे चांद का आकार बढ़ने लगा। शशांक को लगा यह क्या हो रहा है। उसने दाएं-बाएं देखा तो उसकी चारपाई हवा में पचास फीट ऊपर थी। दो मंजिल का घर नीचे था। वह ज़ोर से चीखा तो चारपाई धम्म से ज़मीन पर आ गिरी और वह उछल के दूर खड़ा हो गया।

चीख सुनकर भाभी किचन से बाहर आ गई और घूँघट उठाकर उसे देखने लगी। मगर शशांक को भाभी का चेहरा नहीं दिख रहा था। वो तो बरामदे में खड़ी थी। वहाँ अंधेरा ही अंधेरा था।

अपने चीखने की लगभग दलील सी देता हुआ शशांक बोला –“कुछ नहीं। कुछ नहीं। एक मेंढक मुंह पर उछलकर आ गया था तो मैं डर गया।“ और किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह वापस खटिया पर जाकर लेट गया।

चुड़ैल संतुष्टि पाकर भीतर चली गई। शशांक सोचने लगा कि वह खटिया पर क्यों लेटा। उसे लगा खटिया ने ही उसे खींच लिया हो। वह उठकर भाग क्यों नहीं जाता। उसने हिम्मत की मगर खटिया उसे छोड़ नहीं रही थी। शशांक ने कोशिश छोड़ दी और चुपचाप पड़ा रहा। कोई और उपाय सोचने लगा।

अभी वह सोच ही रहा था कि खटिया पर चरचराहट हुई। वह तो दम साधे लेटा है। हिलना-डुलना तो दूर साँस तक ठीक से  नहीं ले रहा है। भला खटिया चरमरा क्यूँ रही है।

जैसे-जैसे चरमराहट की आवाज़ तेज़ हो रही थी शशांक की धड़कने भी। तभी उसने महसूस किया कि उसके पाँव के पास एक सूत की रस्सी टूटकर उसके दाएं पैर को बांध रही है और इससे पहले की वह और अच्छी से समझ पाता की क्या हो रहा है एक और रस्सी ने टूटकर उसका बायां पैर बांधना चाहा कि वह उठ बैठा। बैठते ही दोनों रस्सियां छूट गईं और अपनी जगह वापस जुड़ गईं।

शशांक अब अपने दोनों घुटने मोड़कर अपने से चिपकाए हुए बैठा था। उसकी रूलाई छूट रही थी। दोनों बाहों से घुटने  पकड़कर वह रोने ही वाला था कि चुड़ैल बाहर आई।

शशांक अपने आप में दुबका हुआ बस उसे महसूस कर रहा था। उसके ठीक सामने एक पत्थर का चौकोर एक फीट का चबूतरा जैसा था। भाभी न उसे एक लोटे पानी से अच्छे से धोया। सारी गतिविधियां शशांक की आँखों के ठीक सामने हो रही थी। उसे आँख की पुतलियां तक हिलाने की आवश्यकता नहीं थी।

फिर भाभी ने दाएं हाथ से नीचे रखा गंडासा उठाया और अपना लाल चुडियों से खनकता-झनकता बायां हाथ धुले हुए चबूतरे पर फैला दिया। और फिर….और फिर……फिर उन्होंने गडांसा अपने बाएं हाथ पर मारा कि वह अलग होकर छिटककर नीचे जा गिरा।

शशांक की चीख निकल पड़ी और वह चारपाई छोड़कर फाटक की और भागा। फाटक बंद था। वह जहाँ-तहाँ फाटक पर पाँव रखकर उसपर जा चढ़ा।

मगर इतने में चुड़ैल ने अपने दाएं हाथ से शशांक का दायां पैर पकड़ लिया। शशांक फंस गया था। वह दूसरी ओर नहीं कूद पा रहा था। चुड़ैल ने कसकर उसका दायां पांव पकड़ रखा था। शशांक ने फाटक को जहाँ-तहाँ पकड़ा था वह छोड़कर अपना दायां पांव पकड़कर खींचने लगा जिससे पहले वह दूसरी ओर उल्टा लटक गया और पांव छूट जाने पर मुंह के बल गिर पड़ा।

उसके दाएं पैर पर चुड़ैल के नाखूनों के गहरे निशान थे। मगर उसके पास कुछ सोचने समझने का समय नहीं था। चुडैल फाटक की उस ओर से चिंघाड रही थी। वह कभी भी बाहर आ सकती थी।

शशांक ने अपना पूरा दम लगाया और घर की ओर भागा। पगडंडियों या कच्चे रास्ते की परवाह किए बगैर वह जान लगाकर भाग रहा था। उसके पीछे दूर-दूर तक पागलों की तरह चीखने की आवाज़ें गूँज रही थी जैसे दो पहाड़ी की चोटियों पर बैठी किन्हीं दो पगलियों के बीच प्रतियोगिता लगी हो।

शशांक के पैर यहाँ के वहाँ पड़ रह थे। कई बार वह लुढक गया मगर लुढकते हुए भी उसने अपनी गति बनाई रखी और गोल लुढ़क कर फिर पैरों पर खड़ा होकर दौड़ने लगा। और दौड़ता गया जब तक अपने घर की देहरी पर आकर न खड़ा हो गया।

*****

*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com

4 thoughts on “हवा

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अछि कहानी ,मुझे भी बचपन में चुड़ैल दिखी थी लेकिन स्प्ने में क्योंकि मैं एक जामन के ब्रिक्ष पर चढ़ गिया था ,जिस के बारे में अक्सर लोग कहा करते थे किः इस ब्रिक्ष के ऊपर बहुत सी च्डैलें रहती हैं .

    • नीतू सिंह

      चुड़ैल दिखती कैसी है?

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        मुझे तो जब दिखाई दी थी तो उस के पैर पीछे की ओर,लम्बे लम्बे बाल और आँखें बड़ी बड़ी .मेरे पीछे पीछे भागी आ रही थी .मैं कभी किसी ब्रिक्ष के नीचे उन की जड़ों में छिपता हूँ ,कभी किसी गड़े में . यह बचपन का एक भय था और बचपन में अक्सर मैं अपनी माँ और अन्य औरतों में बैठा भूत चुड़ैलों की उन की बातें सुना करता था और इस में अक्सर मेरी मां ही कथा वाचक होती थी ,जितनी औरतें होती थीं वो सब अनपढ़ ही होती थीं .शुरू से ही मुझे कहाणिया सुनने का एक चस्का सा होता था ,यही कारण मेरी जिंदगी में नावल पढना आदत बनी .कुछ कुछ मैंने अपनी कहानी के शुरू के किसी काण्ड में इस घटना का वर्णन किया है जो काफी दिलचस्प था .ऐसी और घटनाएं भी हुई , जिन की वजह से मेरे विचार तर्कशील बन गए .

        • नीतू सिंह

          अच्छा अनुभव रहा आपका। आगे अपनी किसी कहानी के लिए मैं आपकी ये चुड़ैल जरुर उधार लूँगी। ह हा।

          आभार आपका। अपने अनुभव बांटने के लिए।

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