सफलता का किरीट
रिटायरमेंट के बाद सूबेदार जोगिंदर सिंह ऑफिस से निकलकर अपनी सूबेदारी के स्वर्णिम दिनों की याद करते हुए अपनी धुन में चले जा रहे थे. उनके घरवालों ने विदाई की पार्टी में आकर घर ले आने को कहा था, लेकिन सूबेदार जी कोई बच्चे थोड़े ही थे, जो उन्हें कोई ऑफिस से उंगली पकड़कर ले आता. उनका सोचना था, कि वे बहादुर थे. लेकिन सोचने से क्या होता है, मन की लगाम को कसना कोई आसान थोड़े ही होता है. जाने कब घर आ गया, उन्हें पता ही नहीं चला. घरवालों के असाधरण स्वागत से वे तनिक सावधान हो गए.
रिटायरमेंट के बाद सूबेदार जी की दिनचर्या में तनिक परिवर्तन आना स्वाभाविक ही था. अब उन्हें अपनी वर्दी को फिट-फाट रखने के लिए ज़हमत नहीं उठानी थी. सुबह नियम से जल्दी उठकर सब कामों से निवृत्त होकर ऑफिस के लिए तैयार भी नहीं होना था. वैसे उनकी नौकरी ही ऐसी थी, कि चौबीस घंटे चौकस रहना पड़ता था, जाने कब ड्यूटी पर हाज़िर होने का आदेश आ जाए. उन्हें तुरंत सेवा-सहायता के लिए पहुंचना होता था. अब मुक्ति-ही-मुक्ति थी. हर बंधन से मुक्ति. मन की मौज में रहना था.
समय बीतते देर नहीं लगी. कई काम शुरु किए, सफलता नहीं मिली. सूबेदारी के साथ-साथ बहादुरी भी सुप्तावस्था को प्राप्त हो चली थी. तन के साथ मन भी निर्बल होता चला गया. कई विचार डूबते-उतराते रहते. आखिर वह दिन भी आ गया, जब संसार की समस्त वृत्तियों से उपराम होने का वहम पाले, वे नदी में छलांग लगाने वाले थे. तभी उनकी नज़र एक डूबते व्यक्ति को बचाने के लिए गुहार करते हुए व्यक्ति पर पड़ी. सुप्तावस्था में सुप्त सूबेदार की बहादुरी पुनः जागृत हो गई थी. उन्होंने छलांग लगाई, लेकिन आत्महत्या के लिए नहीं, किसी की ज़िंदगी बचाने के लिए. वह व्यक्ति बच गया. उसने मालिक के लाखों-लाख शुकराने मानते हुए सूबेदार जी की बहादुरी और मानवता को भी बहुत सराहते हुए कहा- ”रिटायरमेंट के बाद मैं बहुत काम करना चाहता था, लेकिन रिटायरमेंट होते ही नदी निगलने को तैयार बैठी थी. मालिक द्वारा दिए हुए इस अनमोल शरीर को बचाकर आपने मुझे अनेक अधूरे कामों को पूरा करने का अवसर दिया है, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया.”
सूबेदार जी को लगा, यह कोरा धन्यवाद मात्र नहीं था, उस व्यक्ति की वाणी के रूप में जीवन का एक अद्भुत मार्गदर्शन था. उन्होंने कहा, ”भाई, मालिक ही जानता है, कि किसने किसको बचाया है, पर मुझे तो लगता है, कि आपके रूप में आज मुझे अपना गुरु मिल गया है.” एक दृढ़ निश्चय के बाद उस दिन से सूबेदार जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. अब वे स्वेच्छा से सेवा-सहायता में रम गए थे, ड्यूटी के बंधन से नहीं. मन के एक कोने में वीरता के जिन पदकों की मन में झीनी-झीनी आकांक्षा थी, वे उनको रिटायरमेंट के बाद ही मिल पाए थे. खुशियां उनके चारों ओर झूमती हुई मंडरा रही थीं, आनंद ने उनके चरण चूमे थे और सफलता का किरीट उनके सिर सजा दिया था.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। कहानी बहुत ही शिक्षाप्रद एवं प्रेरणादायक लगी। आपको हार्दिक बधाई।
प्रिय मनमोहन भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको कहानी बहुत ही शिक्षाप्रद एवं प्रेरणादायक लगी. प्रतिक्रिया द्वारा प्रोत्साहित करने के लिए आपको भी बधाई.
बहुत अछि समझने वाली और प्रेरक कहानी .
प्रिय गुरमैल भाई जी, अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
सुन्दर और प्रेरणादायक कहानी!
प्रिय अर्जुन भाई जी, अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.