संस्मरण

मेरी कहानी 141

संदीप और जसविंदर हनीमून से वापस आ गए थे। शादी से पहले जसविंदर चाईल्ड सपोर्ट एजेंसी में काम किया करती थी जो डडली काउंसल का ही एक डिपार्टमेंट था और अब यह डीपार्टमेन्ट बहुत देर पहले बंद कर दिया गिया था । काउंसल की जॉब अच्छी मानी जाती थी क्योंकि इस में एक तो पैंशन स्कीम बहुत अच्छी है, दूसरे इस में काम भी अच्छा समझा जाता है और इस में सहुलतें भी अछि होती हैं। इसी लिए कुछ देर बाद संदीप भी जसविंदर के साथ ही काम पे जा लगा। पहले जसविंदर को मैरी हिल सैंटर जाना पड़ता था यहां दफ्तर था और बस में बहुत देर लग जाती थी। अब संदीप के वहां लग जाने से दोनों अपनी कार में चले जाते और शाम को कार में ही इकठे आ जाते। इन दोनों का रूटीन बन गया था और अब कुलवंत और मैंने भी सोचा कि हम इंडिया की सैर कर आएं। मैंने छै हफ्ते की छुटिआं बुक करा ली। कुलवंत की बहन मुंबई में रहती है जिस के पति कुंदन सिंह कभी मेरे साथ हाई स्कूल में पड़ते थे। कुलवंत की दुसरी बहन दिली में रहती थी जो अब नहीं है। हम ने प्लैन बनाया कि पहले हम सीधे मुंबई चलें और एक हफ्ता मुंबई में बिता कर दिली चले जाएँ, दिली में दो दिन बिता कर फगवाढ़े की ट्रेन पकड़ कर गाँव चले जाएँ ।

छुटीआं मंज़ूर हो गई थी और कुलवंत को तो ऐसी कोई प्रॉब्लम थी ही नहीं क्योंकि वह तो जब मर्ज़ी छोड़ दे, कोई फरक नहीं पड़ता था। खरीदो फ़रोख़त शुरू हो गई, नए कपडे, कुछ तोहफे और नए सूटकेस ले लिए, सीटें बुक हो गईं और एक दिन बर्मिंघम एअरपोर्ट पर पहुँच गए। रीटा और कमलजीत भी हमें मिलने एअरपोर्ट पर पहुंचे हुए थे। चैक इन के बाद हम सभी लौंज में बैठ गए। बातें करते करते फ्लाईट की ओर जाने का वक्त आ गया और हम सब को बाई बाई करके गेट के काउंटर पे अपने पासपोर्ट दिखा कर जहाज़ की तरफ चल दिए। इन यात्रियों में मुझे कुछ मेरे काम के ही दोस्त भी मिल गए। अब सफर खुशगवार प्रतीत होने लगा। इस जहाज़ में जाने वाले कुछ यात्री मुंबई जाने वाले थे और दूसरे दिली जाने वाले थे और हम ने मुंबई ही उतर जाना था। जब हम मुंबई एअरपोर्ट पर पहुँच कर बाहर आये तो आगे कुंदन सिंह और उन का बड़ा बेटा बिंदर आये हुए थे। बिंदर ने अभी कुछ दिन हुए एक पुरानी सी गाड़ी ली थी जो शायद सजुकी थी। बिंदर अभी कुछ महीने ही हुए हमारे पास दो महीने रह के गया था। बिंदर एक शिपिंग कंपनी में काम करता था और एक कोर्स करने के लिए ही हमारे पास आया था, यह कोर्स उस ने साऊथ शील्ड के एक कालज में किया था और एग्ज़ाम दे के वापस मुंबई चले गया था और सर्टिफिकेट कुछ महीने बाद मुंबई पोस्ट कर दिया गया था।

गाड़ी में सामान रख के मैं पास ही एक पीसीओ की तरफ चले गया और संदीप को टेलीफोन कर दिया कि हम पहुँच गए थे। सूट केस गाड़ी के ऊपर रख दिए गए और हम इस में बैठ कर बातें करने लगे। कुंदन सिंह को मैं बहुत वर्षों बाद मिला था। पुरानी बातें करते करते ही हम बिंदर के घर के नजदीक पहुँच गए। इर्द गिर्द सब मल्टी स्टोरी फ़्लैट ही थे और इन में ही बिंदर ने दो बैड रूम का फ़्लैट लिया हुआ था जो शायद सिक्स्थ फ्लोर पर था और लिफ्ट के जरिए हम ऊपर पहुँच गए। ज़िंदगी में हम पहली दफा मल्टी स्टोरी फ़्लैट में प्रवेश किया था और हम कुछ अजीब से महसूस कर रहे थे। कुंदन सिंह हमें छोड़ कर चले गया। बिंदर की पत्नी हम से कुछ शर्मा रही थी और कुछ बोल नहीं रही थी, इस लिए मुझे कुछ घुटन सी महसूस हो रही थी। एअरपोर्ट पे हम सात आठ वजे ही पहुँच गए थे और अब हमें भूख लगी हुई थी। बिंदर की पत्नी के साथ कुलवंत खाना बनाने के लिए मदद करने लगी। आलू मटर की सब्ज़ी के साथ रोटी खाई और बहुत मज़ा आया, भूख भी किया चीज़ होती है कि इस के लगने से ऐसे लगता है जैसे पता नहीं कितने दिनों से खाना खाया नहीं होता। आलू मटर की सब्ज़ी तरी वाली थी और उस के ऊपर धनिये के पत्ते तैर रहे थे और मज़े से रोटी खाई।

एक दो वजे का वकत हो गया था, गर्मी भी हो गई थी और हम लेट कर आराम लगे। जहाज़ की थकान के कारण बहुत नींद आई और शाम हो गई। शाम के खाने का प्रोग्राम बिंदर ने बाहर रखा हुआ था। गाड़ी में हम किस ओर जा रहे थे हमें कुछ मालूम नहीं था क्योंकि मुंबई से हम वाकफ नहीं थे। फिर एक होटल के बाहर गाड़ी खड़ी हुई तो एक वर्दीधारी गेट कीपर ने हमारी गाड़ी के दरवाज़े खोले। बाहर आये और एक लॉबी में दाखल हो गए। आगे चलते चलते हम एक बड़े से आँगन में आ गए यहां बहुत टेबल लगे हुए थे और कुछ लोग खाना खा रहे थे। इस गार्डन में दो बृक्ष थे और बृक्षों पर तरह तरह के रंग बिरंगे बल्व जगमगा रहे थे और एक तरफ स्टेज लगी हुई थी जिस पर चार पांच संगीतकार बैठे कोई गाना गा रहे थे। एक वेटर ने हमें एक टेबल की ओर गाइड किया। हम बैठ गए और मैन्यू देखने लगे। अपनी अपनी पसंद के खानों का हम ने आर्डर दे दिया और साथ ही बिंदर ने तीन बीयर का भी आर्डर दे दिया। कुछ देर बाद वेटर एक ट्रे में बीयर और ग्लास ले आया। ग्लास टेबल पर रख कर उस ने बोतलें खोलीं और ग्लासों में धीरे धीरे डालने लगा, इसी वक्त एक और वेटर आ कर लेडीज़ के लिए जुइस ले आया।

अब हम पीने लगे और बातें करने लगे। गाने वाले बहुत अच्छा गा रहे थे और हम बहुत मज़े से सुन रहे थे। जब एक गाना खत्म हुआ तो मैं सीट से उठ कर सिंगरज की तरफ गया, उन के गाने की श्लाघा की और गुलाम की गाई एक ग़ज़ल ” न समझो कि हम पी गए पीते पीते ” की फरमायश कर दी जो उन्होंने उसी वक्त गाणी शुरू कर दी। ग़ज़ल इतनी अच्छी गाई कि मज़ा ही आ गया। ग़ज़ल खत्म होने पर सभी ने जोर जोर से तालियां बजाईं। अब हम बीयर का मज़ा लेने लगे और कुंदन सिंह स्कूल के ज़माने की बातें करके हंसा रहा था जो मास्टरों के बारे में थीं। बीयर खत्म होते ही खाना आ गया। बहुत स्वादिष्ट खाना था और मज़ा आ गया। यह 1995 था और कितना सस्ता ज़माना था कि बिल सिर्फ 1200 रूपए आया था, बिल दे कर हम बाहर आ गए और गाड़ी में बैठ कर घर आ गए। कुंदन सिंह का घर कहीं दूर था और पहले उन को छोड़ आये थे। आते ही हम सो गए।

सुबह उठे, नहाया धोया और अंडे का आमलेट तैयार था। खा और चाय पी कर हम आराम करने लगे। अब वक्त पास नहीं होता था, यह फ़्लैट मुझे एक पिंजरा सा प्रतीत होता था। तकरीबन बारह एक वजे कुंदन सिंह आ गया और कुछ देर बाद एक टैक्सी भी आ गई। टैक्सी में सारा सामान रखा, मैं कुलवंत और कुंदन सिंह इस में बैठ गए और कुंदन सिंह के घर की ओर चल पड़े। टैक्सी घर के बाहर खड़ी हो गई और कुलवंत की बहन पुन्नी बाहर निकल कर कुलवंत के गले मिली और हम भीतर आ गए। भीतर पुन्नी की छोटी बहु हम को पहली दफा मिली क्योंकि इस शादी पर हम आ नहीं सके थे । यह लड़की सिंधी पारिवार से थी और यह प्रेम विवाह हुआ था। लड़की बहुत ही भोली भाली थी और कम बोलती थी और दो साल का उस का बेटा भी था जो बहुत सुन्दर था।

बहु ने दाल वड़े तल लिए, चाय बनाई और हमारे आगे रख दी। यह दाल वड़े हम ने पहली दफा खाये थे और बहुत स्वाद लगे जिस की रेस्पी कुलवंत ने उसी वक्त लिख ली। शाम का खाना खा कर हम ने टैली देखा जिस पर इंडियन प्रोग्राम चल रहे थे और हमारे लिए यह भी एक नई बात थी क्योंकि उस वक्त इंगलैंड में अभी कोई इंडियन चैनल नहीं होता था। सुबह उठे, देसी टॉयलेट में बहुत देर बाद बैठे जिस पर बैठना बहुत मुश्किल लग रहा था और सब से मुश्किल बात हमें नहाने में हुई क्योंकि पानी ठंडा था और हम गर्म पानी के आदी हो चुक्के थे। पहला ही पानी का डिब्बा भर के शरीर पर डाला तो शरीर काँप उठा, लगा जैसे शरीर पर हज़ारों छुरियां चल गई हों। थोड़ी देर बाद सब ठीक हो गया। कपडे पा कर बैठ गए और हमारे सामने दही के साथ गर्म गर्म पराठे आ गए। मज़े से ब्रेकफास्ट लिया।

मैं और कुंदन सिंह जिस को स्कूल में कुंदी कह कर ही बुलाते थे, बातें करने लगे। बातों बातों में कुंदी ने मुझे बताया कि हमारा दोस्त जीत जो कभी मैट्रिक में हमारे साथ पड़ता था और हमारे गाँव का था, नज़दीक ही उस का घर था। मैं तो खुश हो गया और कुंदी को जीत से मिलने की इच्छा जाहर की। कुंदी ने टैलीफोन बुक से जीत का टेलीफोन नंबर निकाल कर जीत को टेलीफोन किया तो आगे जीत ही बोल पड़ा। कुंदी ने जीत को बताया कि गुरमेल आया हुआ है। जीत खुश हो गया, कुंदी ने टेलीफोन मुझे पकड़ा दिया। जब मैंने हैलो की आवाज़ सुनी तो मैं एक दम बोला,” ओए किद्दां कद्दू ऊ ऊ…… ?” , सभी लड़कों ने उस का नाम स्कूल में कद्दू रखा हुआ था। जीत जोर जोर से हंस पड़ा और बोला,” गुरमेल मैं अपने छोटे भाई को गाड़ी दे कर भेजता हूँ, तू अभी आ जा “. मैं और कुलवंत तैयार हो गए। आधे घंटे में ही जीत का छोटा भाई सूमों ले कर आ गया। जीत का यह भाई दो तीन साल का ही था जब मैंने भारत छोड़ा था। जीत के भाई ने हमें सत सिरी अकाल बोला और हम उस की गाड़ी में बैठ गए।

कुछ देर बाद हम जीत के घर जा पहुंचे। घर काफी बड़ा था। सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर के एक हाल कमरे में गए तो जीत सोफे से उठ कर मेरे गले लग गया। फिर मैं जीत के पिता जी जिस को वह बापू जी कह कर बुलाता था के चरण स्पर्श किये और वह भी खुश हो गया। जीत के बापू जी अब बहुत बूढ़े हो चुक्के थे। अब हम बैठ कर पुरानी बातों को याद करके ऊंची ऊंची हंस रहे थे। इतना हंसे कि लगता था, अभी भी हम स्कूल में ही पढ़ रहे थे। कुलवंत और जीत की पत्नी हम को देख देख मज़ा ले रही थीं। फिर मैंने कैमकॉर्डर निकाला और विडिओ बनाने लगा। जब मैं विडिओ बना रहा था तो सभी चुप करके बैठे थे। मैं बोल पड़ा, ” यार ! कुछ हिल जुल और बातें भी करो, तुम तो ऐसे बैठे हो जैसे पासपोर्ट की फोटो बनानी हो “, सभी खिल खिला कर हंस पड़े और अब जीत हँसता हुआ पुरानी बातें कर रहा था जो सभी विडिओ में रिकार्ड हैं।

हम बातें कर रहे थे और जीत की पत्नी रोटी का प्रबंध कर रही थी। जीत की पांच छै साल की पोती अपना छोटा सा कीबोर्ड ले आई और हमें बजा कर दिखाने लगी। कुछ देर बाद खाना टेबल पर लगा दिया गया और हम खाने लगे। खाना खा कर हम जाने के लिए तैयार हो गए। अब जीत की पत्नी कुलवंत के लिए कुछ कपडे ले कर आ गई, अब कुलवंत ने भी जीत की पोती को पांच सौ रूपए दिए और हम जाने के लिए तैयार हो गए। जीत ने मुझे कह दिया कि जिस दिन हम ने दिली के लिए प्लेन लेना था, वह हमें एअरपोर्ट पर चढ़ा कर आएगा। जीत का भाई कुंदी के घर हमें छोड़ आया। आज का दिन हमारा मुंबई का सब से अच्छा दिन था क्योंकि मैं और जीत 33 साल बाद मिले थे।

चलता. . . . . . . . . . .

 

6 thoughts on “मेरी कहानी 141

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी। आपको आपका मित्र जीत 33 वर्ष बाद मिला, यह सचमुच आनंद के ऐसे क्षण रहें होंगे जिन्हे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। आपको भारत के शौचालय और स्नानागार में भी कुछ असुविधा हुई यह नई चीजों का अभ्यास हो जाने और पुरानी चीजों का न रहने के कारण होना स्वाभाविक है। किस्त बहुत रुचिकर लगी। सादर धन्यवाद।

    • धन्यवाद ,मनमोहन भाई . उस वक्त यह सब अभिआस ना होने के कारण ही था . बाद में गाँव आने पर तो हम ने नलके पर नहाना शुरू कर दिया था .

    • सही कहा बहन जी . इस बात में मैं खुशकिस्मत ही रहा हूँ कि जब मैं इंगलैंड में आया था तो बहुत दोस्त जो मेरे साथ सकूल कालज में पड़ते थे भी यहाँ आ गए थे .यह दोस्त जीत तो एक ख़ास दोस्त ही था क्योंकि सकूल के दिनों में जीत हमारे घर ही रात को होम वर्क किया करता था और मेरे कमरे में ही सो जाया करता था . पड़ते पड़ते आधी रात को जीत कहता ,” जाह यार ,मक्की की रोटी और साग ला ” ,मैं रसोई घर में जा कर मक्की की रोटीआं और साग ला आता जो मेरी मां हमारे लिए बचा कर रखती थी क्योंकि उस को पता होता था किः रात को हम को भूख लगेगी . हम यहाँ आ गए और जीत मुम्बई आ गिया .मुम्बई आ कर उस ने बहुत उन्ती की . सिहत अब हम दोनों की ठीक नहीं है और इस मिलन के बाद हम मिल नहीं सके लेकिन जीत को याद करके एक सरूर सा आ जाता है .प्रतिक्रिया के लिए धन्यावाद .

  • धन्यवाद लीला बहन . इन दोस्तों की यादें ही बस एक सहारा सा बन गिया है .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, हमें भी आज का एपीसोड बहुत रोचक लगा. एक बात बड़ी मज़ेदार है, आपके स्कूल के दोस्त आपको देश-विदेश सब जगह मिल जाते हैं. बहुत बढ़िया और मज़ेदार एपीसोड के लिए आभार.

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