चेहरे पर चेहरा लगाकर जी रहा है आदमी
चेहरे पर चेहरा लगाकर जी रहा है आदमी।
खुद से भी खुद को छुपाकर जी रहा है आदमी॥
कहने को तो हम सभी बेबाक कहते है मगर।
सच ये है सच को छुपाकर जी रहा है आदमी॥
देखने को हर किसी के होठों पर मुस्कान है।
दर्द सीने में दबा कर जी रहा है आदमी॥
ख़्वाहिशों के बोझ में दब सी गयी है जिन्दगी।
फिर भी ये बोझा उठाकर जी रहा है आदमी॥
जिस तरफ भी देखिये बेचैनिया है दर्द है।
जिन्दगानी को भुलाकर जी रहा है आदमी॥
आदमी को आदमी पर अब भरोसा ही नही।
बस्तियों में जानवर बन जी रहा है आदमी॥
मर चुकी इंसानियत है धर्म भी बाकी कहाँ।
मर रहा हर रोज फिर भी जी रहा है आदमी॥
सतीश बंसल
प्रिय सतीश भाई जी, अति सुंदर व सार्थक ग़ज़ल के लिए आभार.
प्रिय सतीश भाई जी, अति सुंदर व सार्थक ग़ज़ल के लिए आभार.