लघुकथा – बाँझ
“क्या कहा तूने — पैसे नहीं देगी ? क्यों ? अपने देहज में लायी थी क्या ? खाती है मेरे घर में और अपना पराया भी ? जिन्दा नहीं छोडूँगा ! साली 3 साल से घर में एक भी बच्चा नहीं ? बाँझ कहीं की —-” पैसे लेकर चला गया वो ! रोज मार खाती थी तो इतना दर्द नहीं होता था जितना आज हुआ ! “बाँझ” उफ्फ्फ — दर्द से मन ही नहीं शरीर भी दुखने लगा था ! गैरों को क्या पता दर्द कब कैसे दिया जाता है !
शराब के नशे में लौटते हुए एक्सीडेंट में उसकी मौत क्या हुई मैं ‘हत्यारन’ भी बन गयी ! सास ने मुझे अपराधी बना कटघरे में खड़ा कर दिया ! वापस माँ के घर जाने को बोला तो चुपचाप अलमारी से सामान निकलते हुऐ कुछ डॉ के पेपर मिले, याद आया कि आयुष और मैं डॉ के पास टेस्ट के लिए गए थे —– पर आयुष ने कहा कि मैं माँ नहीं बन सकती, लेकिन रिपोर्ट तो कुछ और ही कह रही थी ! उफ्फ्फ्फ़ इतना बड़ा धोखा, अपमान ! मन आया चीख कर सच उगल दूँ पर अब आयुष नहीं , मन उकता गया ! चली आई वहा से ! मंज़िल ना दे चिराग़ न दे , हौसला तो दे ! घर भी शायद पराया ही हो गया था , बोझ का एहसास होने लगा था !
कुछ समय बाद फिर से शादी की बात होने लगी थी , एक बहुत बड़े घर में , सब तय हुआ और शादी हो गयी!
चलो कुछ नया किया जाए , रूठे से ख़्वाब को सजाया जाए !!
अच्छा परिवार , बड़ा घर — लेकिन ये ख्याल — धरती फटे में समा जाऊँ, जब अजय ने हँसते हुए कहा – “मैंने तुमसे शादी इसलिए की है —- क्योकि —- तुम बाँझ हो ! कमी मुझमें है पर समाज के सामने अब मैं सुरक्षित हूँ ! क्योकि अब कोई मुझे कोई कुछ नहीं कहेगा ! सबकी सहानुभूति भी मेरे साथ कि मैंने तुम पर उपकार किया ! हाहाहा..”
ओह्ह्ह्ह , बिन बात के बाँझ बना दिया, सपनो को जिसने चाहा कुचल दिया. सीता की तरह आज भी अग्निपरीक्षा होती है जो बिन बोले जला दी जाती है !!
यथार्थ को व्यक्त करती बेहतरीन लघुकथा !