कविता : राजनीति हँसती है
ऐसा ना हो कि केवल राजनीति हो जाये
गरीब पिछडा समाज
अपना कल्याण होने से वंचित रह जाये
आखिर कब होगा सम्पूर्ण समाज का भला?
हम जनता कब तक इन नेताओं के द्वारा बाँटे गये
जाति, धर्म, समुदाय में बँटकर पिसते रहेंगे
नेता गरीबों का निवाला छीनकर
वोट बैंक भर अपनी राजनीति चमकाते रहेंगे?
राजनीति दिल नहीं दिमाग देखती है
वह छदम भेष, भाषा दिखा जनता का मूड परखती है
नि:संदेह जुबान की फिसलन
बरसात की फिसलन से भी ज्यादा खतरनाक है
कभी कभी यह फिसलन
भले की कमर भी तोड देती है
एक गलत शब्द
भले मानस पर कब कैसे भारी बन
शब्दों का गज बना दबा दे राजनीति हँसती है……….
— संगीता कुमारी