ग़ज़ल : शुबहात दिल में अपने सदा पालता रहा
शुबहात दिल में अपने सदा पालता रहा ।
शायद इसी के चलते मुझे टालता रहा ।।
ना रास्ता मिला न उसे मंज़िलें मिली ।
वो ख़ाक दरबदर की सदा छानता रहा ।।
मैं पा सका न इंसाँ खुदा की तलाश में ।
बस ख़ाक दर बदर की मैं छानता रहा ।।
फ़ुरसत न मिल ही पाई किसी दिन किसी घडी ।
हर सांस से मेरी उससे यूँ वास्ता रहा ।।
गैरों के साथ रुसवाँ अपनों से भी हुए ।
हर बात यूँ ज़माने में उछालता रहा ।।
सब ख़्वाब गुम थे जैसे किसी गहरे कुएं ।
आँखों की रस्सियों से उन्हें खींचता रहा ।।
हिस्से की मेरी खुशियाँ उसी को मिला करे ।
ताउम्र हर दुआ में ये ही मांगता रहा ।।
— महेश कुमार कुलदीप ‘माही’