दोहे : पड़ी कूप में भाँग
जब से सत्ता में बढ़ी, शैतानों की माँग।
मुर्गे पढ़ें नमाज को, गुर्गे देते बाँग।।
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हुए नशे में चूर सब, पड़ी कूप में भाँग।
एक दूसरे की सभी, खीँच रहे हैं टाँग।।
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संसद में सब गा रहे, अपने-अपने गीत।
यहाँ निठल्ले खा रहे, ठूँस-ठूँस नवनीत।।
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बाहर बने कपोत से, भीतर से सब काग।
मात्र दिखावे के लिए, अलग-अलग हैं राग।।
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केँचुलियों में ढक लिए, सबने काले दाग।
डसने को अब देश को, आये आदम नाग।।
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आज पिशाचों की हुई, दल-दल में भरमार।
थामी सबने हाथ में, छल-बल की पतवार।।
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उनकी पूजा हो रही, जिनके खोटे कर्म।
राजनीति की कैद में, पड़ा हुआ अब धर्म।।
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— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
बहुत सुन्दर !