कविता : कड़वे घूँट
ज़िंदगी
जैसे एक समझौता बन कर रह गई है,
अपने दिल की आरज़ू और ख्वाइशे—
जैसे नदिया में बह गई हैं ,
न दिल की सुन पाते हैं ,
न दिल की कर पाते हैं,
बस हालात से मज़बूर होकर –
दोस्ती, रिश्तेदारी नौकरी और दुनिया,
सबकी सुनकर,
मन को समझा कर.
जिसकी जैसी ज़रुरत हो–
वैसा ही काम कर जाते हैं-
अपनों को अपना बताकर
रिश्तों को रिश्ते बनाकर
जीवन में साथ निभाना,
न चाह कर भी कहीं जाना
न चाह कर भी मुस्कुराना
दिल की दिल में दबा कर
बस हाँ में हाँ मिलाना,
सब कुछ —
जैसे एक समझौता है ज़िंदगी का
और हम सब यही समझौता कर
अपनी अपनी ज़िंदगी ज़ी रहें हैं–
और न चाहते हुए भी
पल पल कड़वे घूँट पी रहे हैं
—जय प्रकाश भाटिया
बहुत अच्छी कविता ! यह सत्य है कि जिंदगी में हमें अनेक समझौते करने पड़ते हैं.
Dhanyvad Vijay ji,