कविता : इक और मीरा
इक और मीरा
झुकी-झुकी इन पलकों में,
सपनों की घटा है छाने लगी !
अजब बेचैनी मेरे मन में,
घर अपना है बसाने लगी !!
बेचैनी ये मेरे दिल को
छू कर तन्हा कर जाती है !
पर वो भी तेरी यादों से,
तन्हा नहीं कर पाती है !!
अहसास, जिनसे से हम बचते थे,
बन रहे हैं जीवन का हैं हिस्सा,
डरती हूँ “अंजुम” तेरा भी,
बन जाए ना कोई किस्सा !!
हाले – दिल छुपा उनसे,
पीछे भी उनके जाने लगी !
दीवानी थी “मीरा” अब तक,
अब “दीवानी” मैं कहलाने लगी !!
झुकी झुकी इन पलकों में,
सपनों की घटा है छाने लगी !
बेचैनी क्यों मेरे मन में,
घर अपना है बसाने लगी !!
अंजु गुप्ता