कविता : आज निश्शब्द हूँ मैं
आज निश्शब्द हूँ मैं
मासूम बच्चियों की चीखती,
चिल्लाती अपना हक माँगती गूँजों से
कहीं गड्ढों में कहीं नालियों में,
कहीं कचरों में कहीं झाड़ियों में
मासूमों को रोते बिलखते देख
आज निश्शब्द हूँ मैं…
कहाँ से लाऊं वो शब्द
जो लोगों के भूसे-भरे
दिमाग को समझा सके,
बदल सकें घृणित मानसिकता को
भेड़ियों सी नजरें गडाएं
न जाने कब किसे अपना
शिकार बना ले
इन इंसानी जानवरों को देख,
आज निश्शब्द हूँ मैं…
मेरे पास वो शब्द नहीं,
जो रोक सकें हैवानों को
हैवानियत करने से
तेजाब से झुलसी
असहनीय पीड़ा सहती
न्याय की गुहार लगाती
पीड़ित लड़कियों को देख
आज निश्शब्द हूँ मैं…
जैसे चिकने घड़े पर
पानी नहीं ठहरता है
वैसे ही बड़े-बड़े अभियानों से
भाषणों से कानूनों से
कोई असर नहीं पड़ता है
सरे आम अपराध होते देख
औरतों को सम्मान खोते देख
आज निश्शब्द हूँ मैं…
आज निश्शब्द हूँ मैं…….
— नीतू शर्मा, जैतारण (पाली)
कहाँ जा रहा है आज का भारत, समझ नहीं आती .मेरे समय में कोई लड़का, किसी लड़की को हाथ भी लगा देता था तो उस का मुंह काला करके गधे पर चड़ा के सारे गाँव के ऊपर घुमाया जाता था और उस लड़के के पास और कोई चारा नहीं रहता था की वोह गाँव छोड़ जाए क्योंकि अगर वोह बीस साल बाद भी वापस आता था तो लोग फिर कहते थे ,” लो वोह फिर आ गिया “, इस नए ज़माने से तो वोह पुराना ज़माना ही अच्छा था . यही कारण था किः लड़की निधड़क हो कर सर उठा कर कहीं भी जा सकती थी .
बिल्कुल सही कहा आदरणीय, प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार |
मैं भी निःशब्द हूँ ..
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना…
दुखद हालात होते जा रहे है स्त्रियों के लिए
प्रतिक्रिया के लिए आभार आदरणीया