कहानी

सपनों की मंजिल

निर्णय तो कर लिया उसने और अपने निर्णय से बहुत उत्साहित भी थी वो। ऐसे ही कुछ सपने तो थे उसके, जिन्हे पूरे करने का उत्साह जुटाती तो कभी उन्हें फ़िज़ूल कह कर खुद ही स्थगित कर देती। कभी खुद ही पछताती मौका पा कर भी चूक गई, तो कभी सब पर झुंझलाती कि उनके कारण ही वह अपनी छोटी छोटी ख्वाहिशें स्थगित करती रहती है या ऐसी उलझी रहती है कि अपने मन का कर ही नहीं पाती। कभी सोचती घर में सब तो अपने मन की कर लेते हैं मैं ही क्यों इतना सोचती हूँ। आत्म मंथन की किसी घड़ी में वह पाती कि सपने देखना और बात है उन्हें पूरा करने के साधन जुटाना भी आसान है लेकिन उन्हें पूरा करने का हौसला जुटाना आसान नहीं है। इसलिए तो साधन सुविधा होते हुए भी बरसों से सपने स्थगित होते रहे हैं।

आज उसने  निश्चय कर ही लिया अब ये करते और करने के बाद उसका दिल कितने ज़ोर से धड़क रहा है ये तो सिर्फ वही जानती है। वैसे वह चाहती भी नहीं है कि कोई और इस बात को जाने। ये तो सपनों की श्रृंखला की पहली कड़ी है और ऐसा भी नहीं है जाने कितनी छोटी मोटी ख्वाहिशें तो आये दिन पूरी होती रहती थी लेकिन उनके पूरे होने में कोई अड़चन नहीं थी किसी के न मानने  का डर नहीं था और खुद का हौसला जुटाने की मशक्कत नहीं थी।
हालाँकि इतना सब सोच लेने और निश्चय कर लेने के बावजूद भी एक और महत्वपूर्ण मोर्चा जीतना अभी बाकी था। घर वालों को अपने निर्णय से अवगत कराना और उनकी सहमति लेना। ये अलग बात थी कि सब सिर्फ अपने निर्णय उसे बताते थे उनमे किसी तरह उसकी सहमति की जरूरत नहीं समझी जाती थी।  पति के निर्णय उनके अपने थे वैसे भी वे घर के मालिक सभी बातों के जानकार और अनुभवी जो भी निर्णय लेंगे सही ही होंगे। कॉलेज में पढने वाला बेटा उनका वारिस जो देखने दिखाने आदतों व्यवहार में उन्ही पर गया है। बहुत तेज़ दिमाग है उसका। बचपन से ही हर विषय में अव्वल हर बात का बारीकी से निरीक्षण करने वाला। चार साल का था तभी पापा जैसी फुल स्लीव की शर्ट और फुल पेंट पहनने की जिद करने लगा था। एक पाँव थोड़ा आगे एक हाथ पेंट की जेब में दूसरे हाथ से बाल संवार कर पीछे करने की आदत सीख गया था बिलकुल पापा जैसे। पापा तो बलिहारी हो जाते थे देखा मेरा बेटा कितने ध्यान से सब बातें देखता समझता है। कालांतर में वह ये भी समझ गया कि पापा जैसे उसे अपने निर्णय भी खुद ही करना है उसके लिए किसी की सहमति की जरूरत नहीं है। वह पापा का बेटा है पापा की ही तरह समझदार और सही निर्णय लेने वाला।
कभी उसे अचानक बाहर जाना हो या कोई आने वाला हो बेटे को हर बात बताना पता नहीं कब उसके व्यवहार और बेटे के अधिकार में शामिल हो गया। ये उसकी खुशकिस्मती ही थी कि अभी उसकी बातों को सिरे से खारिज नहीं किया जाता था या शायद उसकी खुशफहमी। ये तो समय आने पर ही पता चलता है। बेटी निर्णय लेने से पहले उसे बता जरूर देती थी पर वह जानती  थी कि उन पर अमल करने के लिए पापा और भैया को पटाना जरूरी है। ये आज की युवा पीढ़ी की स्मार्टनेस कही जाएगी कि समय और हालात देख कर अपने काम निकालने की कला सीख लेती है।
उस रात उसने पति की पसंद के कोफ्ते बनाये तो बेटे के पसंद की बिरयानी बेटी के लिए सेवइयों की खीर और खाना बनाते बनाते उसके मन में भी कुछ कुछ पकता रहा। बात कब शुरू करेगी खाना खाते खाते या खाना खत्म होने पर मीठे के साथ ? बात कहाँ से कैसे शुरू करेगी ? बिरयानी में चुन चुन कर डाले गए मसालों की तरह ही शब्दों को चुनती रही। मसालों मेवे के क्रम जैसे ही अपनी बातों का क्रम जमाती रही। पहले अपने सपने की बात करे या परिवार के लिए अपने समर्पण की सबके निर्णय के सम्मान की या अपने निर्णय की ? वह खुद ही शायद अपने निर्णय के बारे में आशंकित थी तभी तो उसने खाना खत्म होने तक इंतज़ार किया। सिर्फ इंतज़ार ही नहीं किया बल्कि ध्यान से सबके चेहरों को देखती रही। मनपसंद भोजन की तृप्ति उनके चेहरों पर देख कर उसे तसल्ली हुई।
खीर का एक एक चम्मच ही सबने खाया होगा कि अचानक वह बोल पड़ी “सोमवार को मैं रश्मि से मिलने जा रही हूँ खुद की कार से।” बोलने के साथ ही वह चकित भी हुई। उसने तो सोचा था वह पूछेगी मैं खुद की कार से चली जाऊँ पर उसने अपना निर्णय कैसे सुना दिया ? शायद ये भी उसकी कोई दबी छुपी हसरत थी कि वह बिना किसी सलाह मशविरे के अपने फैसले खुद करे और आज एक निर्णय पर पहुँचने के साथ ही उसमे यह हिम्मत आ गई कि वह सीधे अपना निर्णय सुना दे। मन का एक कोना आशंकित था इसलिए उसने कनखियों से सबको देखा और सबके हाथ में थमी खाली चम्मचों को देख कर वह मायूस हो गई। बात चौंका देने वाली तो थी ही पर अब तो कह दी गई थी और इस पर कैसी प्रतिक्रिया होती है इसका उसे इंतज़ार था।
एक एक पल मानों पहर सा हुआ जा रहा था वह उसके गुजर जाने का इंतज़ार कर रही थी। ठहरे पल को जीना बेहद कठिन होता है। हाँ होने ना होने की आशंका बहुत भारी थी। उसने निखिल की ओर देखा वो ध्यान से उसे ही देख रहे थे। उनके चेहरे पर गम्भीरता की पर्तों के पीछे हैरानी छुपी थी। कल मार्केट चली जाऊँ पूछने वाली वह, अचानक ऐसा फैसला सुना देगी तो हैरानी होना स्वाभाविक ही है। अचानक उसे लगा ये सिर्फ हैरानी ही नहीं है। उसे अपनी ओर देखता पा कर निखिल ने पूछा ये अचानक प्रोग्राम कैसे बन गया ? शायद उन्हें प्रश्न की कटुता का एहसास हुआ आगे थोड़े नरम होते हुए बोले जाना तो ठीक है पर खुद गाड़ी चला कर ही क्यों ?
वह कुछ कहती उसके पहले ही बेटा बोल पड़ा “मम्मी जानती हो रास्ते में घाट पड़ता है और आपको इतनी लम्बी ड्राइविंग का कोई अनुभव भी नहीं है। आपको जाना ही है तो ड्रायवर ले जाओ या संडे को में छोड़ दूँगा आपको। “
उसका चेहरा तमतमा गया कान की लवें गरम हो गईं क्या वह अपने से नहीं जा सकती ? जरूरी है कोई बॉडी गार्ड सा उसके साथ रहे ? जब बच्चे छोटे थे और निखिल अपने काम में बहुत व्यस्त रहते थे तब निखिल ने ही बड़े चाव से उसे गाड़ी चलाना सिखाया था। उनकी अनुपस्थिति में बाज़ार अस्पताल स्कूल की मीटिंग में उसे ही जाना होता था। रिश्तेदारी में जाना आना भी उसके ही जिम्मे था। तब सरकारी ड्रायवर मिलता नहीं था और खुद का ड्रायवर रखना फिजूलखर्ची लगती थी। तब तो किसी ने नहीं कहा कि खुद गाड़ी से कैसे कहाँ कहाँ जाओगी ? तब उसे भी कहाँ फुरसत थी अपने लिए समय निकाले अपनी सहेली से मिलने जाने की सोचे। वह तो अब जब बच्चे अपनी दुनिया में व्यस्त रहने लगे हैं उसे कुछ पल फुरसत के मिल जाते हैं।
“उस रास्ते पर कई बार तुम्हारे पापा के साथ गई हूँ रास्ता तो पता है न मुझे गाड़ी भी चला लूँगी।”
“खुद ही ड्राइव करने की क्या जिद हुई”, निखिल ने खीर खत्म करते हुए कहा। वह और देने को हुई तब तक वो कटोरी खिसका कर उठ गए। सिर्फ खीर ही नहीं उसकी बात को भी परे खिसका दिया उनके साथ ही बेटा भी उठ गया पापा की बात का समर्थन करता सा। उसकी आँखों में आँसू छलछला गये। मेज पर वह और बेटी ही बैठी रह गई। वह बेटी से नज़रें चुराने लगी और चेहरे पर उभर आये अपमान और हताशा के भावों को खीर के साथ गुटकने का प्रयास करते उसका मुँह कड़वाहट से भर गया।
वह क्या कर सकती है क्या नहीं ये उससे ज्यादा उसके पति और बेटा जानते हैं। उसने भी कुछ सोच समझ कर फैसला लिया होगा ये कोई नहीं समझता। उसकी इच्छा समझने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी। डबडबाती आँखों को छुपाने वह उठ कर किचेन में आ गई। बेटी सारे बर्तन समेट कर लाई तो वह वहाँ से हट कर बाहर बालकनी में चली गई। उसके मन में आक्रोश फूट रहा था क्या वह खुद के बारे में कोई फैसला नहीं ले सकती ? अपनी मर्जी से अपने तरीके से कहीं नहीं जा सकती ?
ठीक है वह कहीं नहीं जाएगी यहीं इसी घर में दीवारों पर सिर पटक पटक कर जिंदगी गुजार देगी। अब से वह कहीं भी नहीं जाएगी ना बाज़ार ना रिश्तेदारों के यहाँ ना किसी पार्टी में। जब उसे खुद के लिए कुछ सोचने का फैसला लेने का हक़ ही नहीं है तो यही सही। उसे अपनी विवशता पर रोना आ गया। लोग सोचते हैं कितनी खुश है वह खुश है जब तक सबके अनुसार सोचे और करे। उसके मन में गुबार उमड़ता रहा आँसू बहते रहे।
कितने लम्बे समय से सोचते सोचते उसने खुद में हिम्मत जुटाई थी और अकेले जाने का फैसला किया था। ट्रेवल चैनल पर लड़कियों को अकेले लांग ड्राइव पर जाते देखती तो उसके मन में हुलस उठती कभी वह भी ऐसे ही अकेले ड्राइव करेगी। खूबसूरत वादियों में पहाड़ों के बीच कहीं रुक कर कॉफी पियेगी फोटोग्राफी करेगी। वह खुद को चुस्त केप्री और स्मार्ट से टॉप में देखती। बालों को वादियों की हवाओं के लिए खुला छोड़ किसी पहाड़ी सड़क के किनारे बड़े से मग में कॉफी पीते दूर तक चमकीले नीले आसमान को निहारते। आज उसे लगा उसने शायद आसमान से ऊंचे सपने देख लिए हैं। निराशा उस पर हावी होने लगी।
रात बहुत हो गई थी कब तक वहाँ खड़ी रहती अंदर तो जाना ही था वह नाराज़ थी पर नाराजगी दिखाना नहीं चाहती थी। वह निराश थी किंतु सामान्य दिखना चाहती थी। उसने दोनों हाथों से चेहरा पोंछ कर नाराजगी निराशा दुख को साफ किया और अंदर आ गई। निखिल बेडरूम में टी वी देख रहे थे बच्चे अपने अपने कमरों में थे। सबके हिसाब से वह बात खत्म हो गई जिसमे वह अब तक डूबी हुई थी।
एक बार फिर उसका मन हुआ बात छेड़े कहे निखिल से वह अकेले खुद ड्राइव करके जाना चाहती है। जाने से तो उन्होंने मना नहीं किया है न। अकेले नहीं जाने देने के पीछे मेरी सुरक्षा की चिंता ही तो है। वह फिर भीगने लगी पर उस बात के बाद चुप्पी इतनी लम्बी हो गई थी कि बात का सिरा फिर पकड़ना मुश्किल था। निखिल को देख कर ऐसा लगा मानों अब तक वो उस बात को भूल चुके हैं। मानों उस बात का उस इच्छा का कोई मोल महत्व था ही नहीं वह बात अब खत्म हो चुकी है। वह मान बैठे हैं कि   उसने अपनी इच्छा बिसार दी है क्योंकि उस पर किसी की रजामंदी नहीं थी। उसकी आँखें फिर भीगने लगीं वह निखिल की तरफ पीठ करके लेट गई। पीठ तरफ से आँसू नहीं दिखते लेकिन पीठ एक स्नेहिल स्पर्श का इंतज़ार जरूर करती है वह इंतज़ार करती ही रह गई।
उसने बड़े उत्साह से बताया था रश्मि को मैं खुद ड्राइव करके आऊँगी अब क्या करे जाना कैंसिल कर दे। खुद पर झुंझलाहट होने लगी। मन की खिन्नता चेहरे पर फैलने लगी। सुबह कुछ भारी सी थी। थोड़ी ही देर में उसकी खामोशी घर भर मे फैलने लगी। चुप रहना और चुप्पी लगा लेना बहुत बड़े अंतर के साथ महसूस होने लगा। अाँखों ही अाँखों में उसकी चुप्पी उछाल कर एक दूसरे की ओर फेंकी गई। उसके मऩ का दुख रात भर में करवट ले नई दिशा का रुख कर चुका था। उसका एक निर्णय अस्वीकृत हो चुका था जिसके बारे मे बात करने को उसका अाहत मऩ तैयार ना था। अब वह सोच रही थी रश्मि के यहाँ जाये या ना जाये ? खुद के बनाये भव्य महल को खुद ही धराशायी करना कठिन है। क्या कहेगी ? हाँ कह तो सकती है सुरक्षा की चिंता थी पर कहते कहीं अावाज़ काँप गई या नज़रें झुक गईं तो ? जाना ही कैंसिल कर दे इतने सालों नहीं मिले अभी भी नहीं मिलेंगे। उसका मन भर अाया।
“मम्मा क्या सोचा है अापने कब जाना है ?” बेटे ने पूछा बड़ी मुश्किल से वह अपना अाक्रोश निगल पाई पर चुप ही रही। “मम्मा बताइए ना क्या हुअा कब जाने का डिसाइड किया है अापने ?”
“रहने दो मै कहीं नहीं जा रही हूँ मुंह मे कौर होने के बावजूद उसने पानी पी लिया।
“अरे क्यों कल तक तो बड़ी खुश थीं आज अचानक क्या हो गया ?” ये निखिल थे एकदम सामान्य उसकी अन्मयस्कता से अंजान से दिखते पर वो समझ गई कल रात से ही उसकी बैचेनी और निराशा को समझते रहे हैं वो।
उसने एक नज़र उनकी ओर देखा उनकी आंखों में अनुनय की एक झलक दिखी। अब जवान बच्चों के सामने इससे ज्यादा तो वो दिखा नहीं सकते थे पर वह समझ गई उसे उदास देख कर खुश नहीं हैं वो। वह पिघलने को हुई पर रात की बेरुखी और गाड़ी से खुद ना जा पाने के दर्द ने उसे फिर जड़ कर दिया। बात सिर्फ गाड़ी से जाने की ही नहीं थी बात थी उस सपने के बिखर जाने की जो उसने बरसों से संजो रखा था। टूटी कांच की चूड़ियों रंग बिरंगे पत्थर गुड़िया की चुन्नी लहंगे या खिलौने के चकला बेलन चूल्हे जैसा संजोया सपना था उसका।
“मम्मी क्या हुआ वैसे भी आप सिर्फ घर में रहती हैं कहीं आती जाती भी नहीं अब आपने प्रोग्राम बनाया है तो हो आइए ना” बेटी ने कहा।
“रहने दो मेरी रश्मि से बात तो हो ही जाती है ” आगे कुछ कहते कहते उसने अपना होंठ काट लिया।
“क्या हो गया मम्मा आप नाराज़ हो ? आपको जाने से मना थोड़े कर रहे हैं हम।  हो आइये आपको भी चेंज हो जाएगा , वह चुप रही।
कमरे की हवा अनकहे शब्दों से बोझिल थी गाड़ी से जाने न जाने वाली बात कोई करना नहीं चाहता था। प्रेम के रुपहले बादलों के बीच अहं के काले किले छुपे रहते हैं जो कभी कभी रुपहले आवरण से सिर निकाल कर अपने होने का एहसास दे देते हैं।
अब वह गाड़ी की बात नहीं करना चाहती थी ना जाने की बात वह कह चुकी थी। अगर खुद ड्राइव नहीं कर सकती तो नहीं जाएगी। निखिल बेटा और बेटी सभी इस बात को समझ रहे थे। वे ये भी समझ रहे थे कि अब अगर वो नहीं जाएगी तो घर का माहौल ऐसे ही बोझिल बना रहेगा।
नाश्ते के बाद जब वह कॉफी लेने किचन में गई पीछे कुछ खुसर पुसर होने लगी पर उसने ध्यान नहीं दिया।
“मम्मा पक्का आप खुद से गाड़ी ड्राइव कर लोगे घाट में गाड़ी चलाने में आपको परेशानी तो नहीं होगी ?
“परेशानी क्यों होगी कितनी बार दादी बुआ और तुम लोगों को लेकर सोना घाटी के हनुमान मंदिर दर्शन करने ले गई हूँ वहाँ भी तो गाड़ी चलाई है वह भी कई साल पहले जब गाड़ी सीखी ही थी। ” उसने निर्लिप्तता से जवाब दिया।
“ओके बाबा तुम्हारी यही इच्छा है ना कि खुद गाड़ी चलाओ अगर तुम कम्फर्टेबल हो तो हमें क्या आपत्ति होगी ?” निखिल ने अपने रुपहले संसार को संजोने की समझदारी दिखाते हुए कहा। फिर बेटे से बोले गाड़ी गैरेज पर ले जाकर चेक करवा लो गैस हवा पानी सब चेक करवा लो। कल कितने बजे निकलोगी तुम ?
सुखद आश्चर्य में भरी वह थोड़ी देर तो कुछ बोल ही नहीं पाई।
“यो मम्मा तो कल आप एडवेंचर ट्रिप पर जा रही हैं मजे करना बिटिया उनके गले में बाहें डालकर लिपट गई और सभी हंस दिए।
खैर नियत दिन , नियत समय जरूरी हिदायतों और तैयारियों के साथ वह निकल पड़ी अपना सपना पूरा करने।
हवा पानी पेट्रोल सब चेक कर लिया एक छोटा बेग , जरूरी कपडे, पानी की बॉटल भी रख ली। निकलने के पहले भगवान से कृपा बनाये रखने का आशीर्वाद भी मांग लिया। शहर से बाहर निकल कर बायपास पर आते ही वह रोमांचित हो गई विश्वास हो गया कि उसका सपना पूरा होगा वह सपना पूरा करने की डगर पर, नहीं नहीं हाइवे पर चल पड़ी है। यही तो सपना था उसका खुद अकेले ड्राइव करके लम्बा सफर तय करना। यूं तो कई बार इस रास्ते पर कार से सफर किया है अक्सर निखिल के साथ या फिर ड्राइवर गाड़ी लेकर आता और वह पिछली सीट पर बैठी गुजरते पहाड़, पेड़, ट्रक, मोटर साइकिल देखते समय बिताती या ड्राइवर के पसंद के अस्सी के दशक के ढिंगचक गाने सुन मन ही मन झुंझलाती। आज उसने चलने के पहले रेडियो चेक कर लिया था मोबाइल पर भी अपनी पसंद के पुराने गाने डाउन लोड कर लिए थे।
कार के बंद शीशों के उस छोटे से संसार में वह ये मौसम रंगीन समां की स्वर लहरियों के संग बढ़ती चली जा रही थी। शहरी बायपास की चहल पहल अब पीछे छूट गई थी। सड़क के दोनों तरफ सागवान के पेड़ थे।   बसंत की दस्तक होने को ही थी। सागवान के पत्ते अपनी जिंदगी के थपेड़ों को झेलते हुए छलनी हो चले थे। किसी समय जब वह और निखिल मोटर साइकिल पर इस रास्ते से जाते थे वह जिद करके गाड़ी रुकवाती और सागवान के इन छलनी हुए पत्तों को इकठ्ठा कर संभाल कर घर तक ले जाती। उन पत्तों पर खूबसूरत पेंटिंग बनाती। कभी कभी सोचती इंसान भी तो इन पत्तों की तरह है जिंदगी के अनुभव हासिल करते करते छलनी हो जाता है लेकिन फिर उसकी उपयोगिता क्या रह जाती है सिर्फ एक सजावटी वस्तु या अनुपयोगी कबाड़ जो पड़े पड़े खुद के मिटटी हो जाने का इंतज़ार करता रहता है।
उसका मन हुआ गाड़ी रोक कर कुछ पत्ते चुन ले। अभी वह गाड़ी रोकने लिए सही जगह तलाश कर ही रही थी कि अचानक एक बोलेरो उसके बगल से तेज़ गति से निकली। वह अकबका गई ये अचानक कहाँ से आई वह तो रेयर व्यू पर लगातार नज़र रखे थी फिर उसे गाड़ी क्यों नहीं दिखी। उसने रुकने का विचार स्थगित कर दिया। ओह अकेले होने का ये पहला एहसास था जो बोलेरो की तेज़ रफ़्तार से आया था पर उससे उड़े धूल के गुबार सा उसके साथ रह गया। मुझे और ध्यान से गाड़ी चलाना चाहिए खुद से कहते उसने साइड मिरर ठीक किया। इस अकस्मात् घटना ने उसे डरा दिया अकेले आने का उत्साह सतह पर टकराई पानी की किसी बूँद सा छितराया जिसने उसे पूरी कोशिश कर फिर इकठ्ठा किया। हो जाता है कभी कभी कहते हुए उसने खुद को सांत्वना दी और आगे बढ़ गई।
एक छोटा गाँव आने वाला था। गाँव के बाहर नदी की पुलिया से गुजरते उसने दायीं ओर नज़र घुमाई नदी का किनारा सुनसान पड़ा था। नदी सूख गई थी वैसे भी बरसाती नदी की उम्र चौमासे भर होती है। कभी इस नदी के किनारे कतार से खूबसूरत टेसू के वृक्ष थे। गर्मियों में तपते पत्थरों के दोनों तरफ दहकते फूल लहकते थे। अब वहाँ झाड़ झंखाड़ और गाँव का कचरा पड़ा था। उसका मन खिन्न हो गया क्यों हम अपनी प्राकृतिक संपदा से खिलवाड़ कर रहे हैं शहरों के साथ अब गाँवों में भी।
गाँव से निकलते गाड़ी की गति धीमी हो गई उसे प्यास सी महसूस हुई। गाँव के बाहर साइड में गाड़ी रोकी पानी पिया। रेडियो पर  नये गाने आने लगे थे उसने रेडियो बंद करके मोबाइल पर गाने लगा दिए। तब तक एक बैलगाड़ी उसकी गाड़ी से आगे आ गई। बैलगाड़ी में अनाज की बोरियों के ऊपर तीन औरतें और एक लड़की बैठी थी। जैसे ही उसने  गाड़ी स्टार्ट की वे एक दूसरे का ध्यान उसकी ओर खींचने लगीं। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि अकेली औरत कार से गाँव के बाहर जा रही है। तब तक गाड़ीवान ने भी मुड़कर उसकी तरफ देखा। उनके अचरज पर वह धीमे से मुस्कुरा दी उसका मन गर्व भर गया अपना सपना और उसे पूरा करने का हौसला जुटाने का गर्व।
आगे घाट था एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ गहरी खाई। निखिल के साथ आते वह कई बार जिद करती थी यहाँ रुकने की। पहाड़ी के किनारे खड़े हो कर दूर तक फैली हरी भरी वादियों को निहारते कॉफी पीने की लेकिन निखिल हमेशा टाल जाते यहाँ रुकना खतरनाक है कहते हुए। आज भी चलते समय उसे ये वादियाँ याद आयीं थीं लेकिन पुरानी बातों को याद करते अकेले रुकने की हिम्मत नहीं हुई उसकी। अब घाट के तीखे मोड़ और उतार पर गाड़ी की गति साधने में उसने पूरा ध्यान लगा दिया। मोबाइल पर चल रहे गाने अब उसकी एकाग्रता में खलल डालने लगे लेकिन इस समय वह सड़क से ध्यान हटा कर मोबाइल बंद करने की स्थिति में भी नहीं थी। हाँ मौका पाकर उसने मोबाइल पर अपना पर्स रख दिया जिससे आवाज़ दब गई।
निखिल और वह जब भी यहाँ से गुजरते थे वह हमेशा तेज़ आवाज़ में गाने सुनती और गुनगुनाती थी पर कभी महसूस नहीं हुआ कि निखिल को गानों से खलल हो रहा है वो कितनी आसानी से अपने आप को विलग कर लेते हैं। कई बार वो और बच्चे बातें करते बहस करते गाने गाते पर निखिल पूरा ध्यान सिर्फ गाड़ी चलाने पर लगाते। शायद यही मूल अंतर है स्त्री और पुरुष में। स्त्री खुद को विलग नहीं कर पाती इसलिए हर चीज़ में दुःख पाती है। और ख़ुशी भी अकेले आ पाने की ख़ुशी ने अपना सिर उठाया और वह मुस्कुरा दी।
बारह किलोमीटर का सफर करने में लगभग आधा घंटा लग गया। उसे थकान सी महसूस होने लगी या शायद ये तनाव था जो अब उसकी नसों से पिघलने लगा था। लेकिन वह खुश थी संतुष्ट भी कि इस खतरनाक कहे जाने वाले घाट को उसने इतने अच्छे से पार कर लिया था उसका आत्मविश्वास बढ़ गया था। उसने एक ढाबे के पास गाड़ी रोकी चाय पीने का मन कर रहा था। आर्डर दे कर वह बैठ गई और अपने चारों तरफ नज़रें घुमाई। एक टेबल के इर्दगिर्द तीन आदमी बैठे थे। दो तीन परिवार भी वहाँ थे एक वही अकेली थी। उसका ध्यान ढाबे के मालिक की ओर गया वह उसे ही देख रहा था शायद कयास लगा रहा था कि वह अकेली है या कोई और भी है उसके साथ। वह थोड़े संकोच से भर गई अकेले सफर पर निकलने के उसके उत्साह पर डर की झीनी चादर फ़ैल गई। उसने फिर इधर उधर देखा तो उन तीनों आदमियों और एक परिवार को खुद को घूरते पाया। उसका मन हुआ जल्दी से जल्दी यहाँ से चल दे तभी लड़का उसकी टेबल पर चाय का गिलास रख गया। चाय की तलब डर पर हावी हो गई जल्दी से चाय ख़त्म की और गाड़ी में बैठ गई। उसने सतर्कता से चारों ओर देखा वे तीनो व्यक्ति बाहर आ रहे थे अचानक जैसे उसकी साँसे अटक गईं ना जाने कितने विचार आये वह सिलसिलेवार कुछ सोचती तब तक वे अपनी कार की तरफ बढ़ गए। उसने गाड़ी स्टार्ट की और रेयर व्यू में देखा उनकी गाड़ी विपरीत दिशा में बढ़ गई उसने राहत की साँस ली।
आगे का रास्ता घने जंगल से होकर गुजरता है। सड़क के दोनों किनारों से ही ऊँचे ऊँचे पेड़ खड़े थे सूरज की किरणें दायीं ओर से छन छन कर आ रही थीं। अगला गाँव अब काफी दूर था इसलिए अब दोपहिया वाहन इक्का दुक्का ही दिख रहे थे वो भी काफी अंतराल से अधिकतर तो ट्रक कार और जीप ही थे जो तेज़ गति से भागे जा रहे थे। उसने कार के शीशे खोल दिए। तेज़ भागती कार में जंगल की हवा सांय सांय करती भरने लगी। ना जाने क्यों उस पर अकेलापन हावी होने लगा। उसने शीशे फिर बंद कर दिए और रेडियो पर गाने लगा दिए तेज़ बीट के नए गाने। वह जोर जोर से गाने लगी इससे उसका अकेलेपन का एहसास कुछ कम हुआ। अकेले इतनी लम्बी ड्राइव करने का रोमांच अब स्थिर सा हो गया था जबकि कार तेज़ गति से भागी जा रही थी उसके और मंज़िल के बीच कुछ ही अंतराल बाकी था।
तभी फोन बज़ उठा उसने गाड़ी धीमी की ,”हाय कहाँ पहुँच गई ?” चहकती आवाज़ ने उसे उत्साह से भर दिया।
“बस पहुँचने ही वाली हूँ ज्यादा से ज्यादा बीस मिनिट। “
उसका सपना , सपना पूरा करने का हौसला, समीप आती मंज़िल। गाड़ी बाजार की सडकों से निकल कर कॉलोनी की कच्ची सड़क से होते उस घर के सामने रुकी वह बाहर ही खड़ी थी दोनों ने हाथ हिलाया। गाड़ी से उतरते ही वे दोनों गले लग गई। उसके बचपन की सहेली जिसके साथ वह दो दिन की छुट्टियाँ बिताने आई थी। दो दिन सिर्फ वे दोनों और उनका बचपना यही तो थी उसके सपने की मंजिल।

कविता वर्मा

जन्म स्थान टीकमगढ़ वर्तमान निवास इंदौर शिक्षा बी एड , एम् एस सी पंद्रह वर्ष गणित शिक्षण लेखन कहानी कविता लेख लघुकथा प्रकाशन कहानी संग्रह 'परछाइयों के उजाले ' को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् राजस्थान से सरोजिनी कुलश्रेष्ठ कहानी संग्रह का प्रथम पुरुस्कार मिला। नईदुनिया दैनिक भास्कर पत्रिका डेली न्यूज़ में कई लेख लघुकथा और कहानियों का प्रकाशन। कादम्बिनी वनिता गृहशोभा में कहानियों का प्रकाशन। स्त्री होकर सवाल करती है , अरुणिमा साझा कविता संग्रह में कविताये शामिल।

One thought on “सपनों की मंजिल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक कहानी ! एक महिला के साहस और आत्मविश्वास को प्रकट करती हुई बढ़िया कहानी. लेखिका को साधुवाद!

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