संस्मरण

मेरी कहानी 156

मंदीप की शादी हो गई थी और हम अपने गाँव राणी पुर आ गए। जब हम बहुत देर भारत से बाहर रहते हैं तो भारत की बहुत सी नई बातों का हम को गियान नहीं होता। समय के साथ साथ बहुत तब्दीलियाँ आ जाती हैं जो हम को अद्भुत लगती हैं। जब हम ने भारत छोड़ा था तो उस समय सुहाग रात शब्द इस्तेमाल होता ही नहीं था, इस का घर वालों के सिवा और किसी को पता ही नहीं होता था, या यूं कहें कि इसे छुपा कर रखा जाता था . भारत के किसी और प्रांत में सुहाग रात का शब्द इस्तेमाल होता होगा, मुझे पता नहीं लेकिन पंजाब में तो इसे जैसे छुपा कर ही रखा जाता था। मुझे मंदीप की शादी में ही इस का पता चला कि जो हम फिल्मों में सुहाग रात की सेज के बारे में देखते थे, वोह वास्तव में सही था। मंदीप और उस की पत्नी के लिए कमरे को सजाया जाने लगा था और मज़े की बात यह थी कि मंदीप के दोस्त ही कमरा सजा रहे थे। कितना समय बदल गया, जब चर्मकार लोगों को दूर ही रखा जाता था और आज उन के बच्चे यानी मंदीप के दोस्त सुहाग रात वाला कमरा सजा रहे थे और आपस में हंसी मज़ाक कर रहे थे। यह देख कर मेरा मन बहुत पर्सन हुआ था कि चलो कमज़कम पंजाब से तो यह अंतर और भेद भाव दूर हो ही रहा था, जिस में देश की उन्नति का राज़ छिपा है, इसी लिए तो पंजाब ने बहुत उन्नति की है । अब,जब मैं यह लिख रहा हूँ तो चाहता हूँ कि हिन्दू समाज से जात पात का कलंक दूर हो जाए। यह जात पात देश को बाँटती है और इकठे नहीं होने देती। यहां इंग्लैंड में यह भेद भाव है ही नहीं, तभी यहां आ कर दलितों ने बहुत उन्नति की है और उन की फैक्ट्रीयों में ऊँची जात के लोग काम करते हैं, बच्चे आपस में शादीआं कर रहे हैं। जो हम लोग इंडिया से आये हुए हैं, वोह यह देखना नहीं चाहते थे लेकिन सब पढ़े लिखे बच्चे हैं और किसी की सुनते नहीं हैं। यही वजह है कि अब हम बज़ुर्गों की ऐसी स्थिति हो गई है कि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे कमसेकम इंडियन से ही शादी करें नाकि किसी गोरे काले से लेकिन यहां के बच्चे अँगरेज़ बच्चों से भी शादीआं कर रहे हैं। इस में सोचने की बात यह भी है कि जब अँगरेज़ बच्चे हमारे बच्चों से शादी करते हैं तो उन के अँगरेज़ माँ बाप इस में कोई बाधा नहीं डालते बल्कि शादी में सम्मिलत होते हैं। हम तो इंडियन हो कर भी लड़की का सांवला रंग देख कर बेटे की शादी करने से हिचकचाते हैं। हमारे साथ काम करने वाले बहुत लड़के छोटी जातों के थे लेकिन वोह सीधी बात कर देते थे कि वोह चमार हैं और इस में किसी को कुछ नहीं होता, हाँ ! कुछ लोग अभी भी हैं जिन को किसी चमार को देख कर गाँव की पुरानी चमारली (चर्मकार बस्ती ) याद आ जाती है जब कि वोह बस्तियाँ बहुत देर से गायब हो चुकी हैं। अक्सर मेरी बात मेरे दोस्त रंजीत राये के साथ होती रहती थी और वोह कहा करता था, “भमरा ! सच्ची बात तो यह है कि हमारे लोगों ने इंगलैंड में आ कर ही आज़ादी का सांस लिया है, इंडिया में तो हम को कुत्तों जैसी जिंदगी ब्यतीत करनी पड़ती थी,यही वजह है कि हमारे लोग जी जान से काम कर रहे हैं “, राये की बात में कितना सच्च था। अभी एक घंटा ही हुआ है, मैं पंजाबी का एक पेपर पढ़ रहा था, जिस पर एक हमारे टाऊन के डिप्टी मेयर की फोटो थी जो एक चर्मकार है और उस के कंधे पर हाथ रखा हुआ है एक हिन्दू ने जो यहां के कृष्णा मंदिर का प्रैजीडैंट है। इस से पहले भी इस टाऊन का मेयर एक चर्मकार बिशन दास होता था। एक तरसेम सिंह जो एक चर्मकार है , वोह भी टाऊन का मेयर रह चुक्का है और उस की पत्नी कुलवंत के सेंटर में रैगुलर आती है क्योंकि वोह इस हमजोली ग्रुप की मैम्बर है। जब मैं भारत में दलितों की हालत के बारे में पढता देखता हूँ तो मुझे बहुत शर्म आती है और दुःख होता है। क्यों भारती होते हुए भी इन से इतना वितकरा किया जाता है। वितकरा तो हमारे साथ भी यहां होता है लेकिन इस तरह का नहीं। यहां वितकरा इस बात से है कि हम विदेशी लोग उन की नौकरियाँ छीन रहे हैं और उन की कल्चर को प्रभावत कर रहे हैं। यहां तो काले गोरे सब मिल कर काम करते हैं। गुरदुआरे में सब जातों या धर्मों के लोग एक जगह इकठे मिल कर लंगर में खाना खाते है और इसी तरह यहां पब्बों में सभी धर्मों और रंगों के लोग पास पास बैठे मज़े कर रहे होते हैं। घरों का कूड़ा करकट उठाने वाला भी यहां होता है और कोई उच्चअधिकारी भी पास ही बैठा हँसता और जोक करता होता है। सब अच्छे कपड़े पहन कर आते हैं और पता ही नहीं चलता कि कौन दलित है और कौन स्वर्ण जाती का।
बात कर रहा था, मंदीप और उस की दुल्हन की सुहाग रात की, मैं तो अपने रिश्ते की वजह से वहां जा नहीं सकता था लेकिन सुहाग रात वाले कमरे से लड़कों की हँसियाँ सुनाई देती थी। बार बार किसी बात को ले कर जोर जोर से हंसीयों की आवाज़ गूँज रही थी और आज के बच्चों को मस्ती करते देख ख़ुशी होती थी। समय समय की बात है, वोह भी समय था जब हनीमून का नाम ही हम ने सुना नहीं था और आज लड़का लड़की शादी से पहले ही हनीमून के लिए हॉलिडे बुक करा लेते हैं। लिखते लिखते मुझे हंसी आ गई। अब तो सब को पता है कि हनीमून किसे कहते हैं। जब निंदी की शादी हुई थी तो निंदी और उस की पत्नी ने हॉलिडे के लिए बाहर जाना था। निंदी की ममी की एक दूर से रिश्तेदार बुडीया जिस का नाम पियारी है, निंदी की ममी को कहने लगी,” मासी! तुम भी साथ हनीमून चले जाते !”, यह सुन कर सभी हंस पढ़े लेकिन उस बुढ़ीया, जिस का नाम पियारी है उस को कोई समझ नहीं थी कि यह लोग क्यों हंस रहे थे। यह बुढ़ीया बहुत भोली भाली है। एक दफा निंदी ने मुझ से साधाहरण ही पुछा था,” भा जी ! यह पियारी लफ्ज़ को इंग्लिश में किया कहेंगे ?”, मैंने हंस कर कर कहा,” beloved one “, इस पर निंदी बहुत हंसा था। आज भी जब कभी पियारी की बात होती है तो निंदी हंस कर कह देता है, भा जी ! beloved one !
इस रात को घर में काफी रौनक थी। सुबह उठे तो नई नवेली दुल्हन लाल चूड़ा पहने घर में इधर उधर घूम रही थी और साथ ही मंदीप था। ऑस्ट्रेलिया में जनम लेने वाली दुल्हन गुरप्रीत में भारती संस्कार भी थे और ऑस्ट्रेलियन संस्कार भी क्योंकि वोह अंग्रेज़ी तो बोलती ही थी लेकिन पंजाबी भी बहुत अच्छी बोलती थी। क्योंकि मेरे और कुलवंत की यह शॉर्ट विज़िट ही थी, इस लिए हम ने अपने बैग उठाये और बस पकड़ कर फगवाड़े शॉपिंग के लिए चले गए। शॉपिंग करके कुलवंत की बहन दीपो को मिलने चले गए। दीपो को मैंने पहले ही कह रखा था कि वोह सरसों का साग बना कर रखे। साग तो हम यहां भी बनाते हैं लेकिन इंडिया वाली सरसों का साग यहां नहीं होता। दीपो के घर पहुँच कर खूब बातें कीं और जब रोटी का वक्त हुआ तो मैंने दीपों को और खाने बनाने से मना कर दिया क्योंकि मैं सिर्फ मक्की की रोटी, साग, हरी मिर्च और घर की लस्सी का स्वाद ही लेना चाहता था। एक बात और भी है कि मक्की यहां मेक्सीको से आती है और यह बहुत सख्त होती है। जो पंजाब की मक्की होती है, वोह खाने में नरम और स्वादिष्ट होती है। दीपो ने साग में अदरक लहसुन डाल कर तड़का लगाया और फिर अपनी घर की गाये का माखन साग में डाल दिया। बचपन से मुझे एक आदत है और वोह है बहुत धीरे धीरे खाना। घर के सभी लोग खाना खा चुक्के होते हैं, कुलवंत बर्तन भी धो चुकी होती है और मैं अभी भी खा रहा होता हूँ। एक एक ग्राही को मैं मज़े से खाता हूँ। मैं खाना खाता नहीं हूँ, इस का आनंद लेता हूँ और आज भी मैंने दीपो के हाथों का खाना बहुत मज़े से खाया। साग तो कुलवंत भी यहां बहुत बढ़ीया बनाती है, जिस में बहुत कुछ डालती है लेकिन पंजाब की सिर्फ सरसों ही इन सब से उत्तम है। दीपो का मट्टी की हांडी में साग बनाना सोने पे सुहागे जैसा होता है क्योंकि यह चूल्हे पर बनाया होता है। उस के पास गैस कुकर भी है लेकिन चूल्हा उस ने जाने नहीं दिया । आज हम बहुत मॉडर्न हो गए हैं लेकिन पुरातन घर के देसी खानों से कोई मुकाबला नहीं है।
विदेशी प्रभाव के कारण भारत में आज बाहर खाने का रिवाज़ बहुत हो गया है जिस से पैसे खर्च करके हम बीमारियाँ खरीदते हैं। यह बात नहीं है कि हम ऐसी चीज़ें बिलकुल नहीं खाते। खाते हैं लेकिन बहुत कम। पंजाबी भाषा में कुलवंत और मैं ऐसी खाने की चीज़ों को खेह सुआह कहते हैं यानी रब्बिश। हमारे घर में तीन डिब्बे मिठाईयों के पड़े हैं जो शादी में दिए गए थे , इन को हम ने खोला भी नहीं है और बुधवार को कुलवंत सारी मिठाई अपने सैंटर ले जा कर अपनी सखियों को खिला देगी क्योंकि वोह सभी मज़े से खाती हैं, हा हा लेकिन है सभी किसी न किसी रोग से ग्रहस्थ। किसी को हाई ब्लड प्रैशर और किसी का बाई पास हुआ हुआ है। क्या करें आखर तो हम इंसान ही हैं और मीठा एक ऐसी चीज़ है जो सब को अच्छा लगता है, चाहे कितना भी कोई कह दे कि यह स्वीट पॉयजन है। कभी मैं भी बहुत शौक़ीन हुआ करता था। अब तो मैं हंस कर कुलवंत को कह देता हूँ कि कभी घर में मिठाई आती है तो वोह मुझे बताया ना करे क्योंकि मिठाई देख कर मन ललचाता है। दीपो के हाथों की रोटी से मज़ा आ गया। दीपो ने बहुत सा साग एक बर्तन में डाल दिया कि हम साथ ले जाएँ। दीपो को मेरी सादगी के बारे में सब मालूम है। कुछ कपडे और जूते कुलवंत ने दीपो के लिए लाये थे, उस को दिए तो वोह बोलने लगी जैसे औरतें अक्सर ऐसे समय बोलती ही हैं, ” इतना खर्च क्यों किया, मैंने यह नहीं लेने, यह बहुत है, तुम तो हर दफा भेजती रहती हो ” अतिआदिक और मुझे ऐसी बातों का भली भाँती पता है, इस लिए मैं चुप ही रहता हूँ। फिर दीपो ने कुछ दिया और आखर में दीपो हमें रेलवे लाइन तक छोड़ने आई। शाम को हम राणी पुर वापस आ गए। कुछ देर बैठे बातें करते रहे और फिर मंदीप हमें शादी की वीडियो दिखाने लगा। वीडियो बहुत अच्छी बनी थी और फिर जब पैलेस हाल में उस शराबी का वोह पार्ट आया तो सभी हंसने लगे। उस शराबी को सभी पीट रहे थे और मैंने भी उस को बहुत घूंसे मारे थे और इस को देख सभी बहुत हँसे। वैसे मैं लड़ाई झगडे से बहुत दूर रहता हूँ और यह मेरी फितरत के खिलाफ है लेकिन जब मैंने अपने छोटे भाई निर्मल को नीचे गिरा देखा तो मैं अपने आप पे काबू नहीं कर सका था।
सुबह को कुलवंत ने मेरे कपडे धो कर बाहर धुप में सुखा दिए थे। इंडिया में आ कर अपने कपडे मैं खुद ही प्रैस किया करता था। इंगलैंड से आते वक्त मैं ने अपने लिए कुछ कपडे खरीदे थे जिन में मेरी दो बहुत पसंदीदा हाफ स्लीव बुशर्ट थीं जिन में एक अभी भी मेरे पास है लेकिन यहां गर्मियों में सिर्फ एक दो हफ्ते ही पहन सकता हूँ क्योंकि गर्मी इतनी पड़ती नहीं है लेकिन जब भी मैं इसे पहनता हूँ तो मुझे इंडिया की याद आ जाती है। इस का रंग साबित मूँग की दाल जैसा है। कुलवंत बहुत दफा इसे फैंकने को कह चुकी है और मेरे पास और भी कई ऐसी शर्ट्स हैं लेकिन जब कभी गर्मी होती है तो पहले इसे ही पहनता हूँ और इस से मुझे यह भी पता चल जाता है कि मेरा वजन पन्द्रह सोला साल पहले जैसा ही है। निर्मल और परमजीत बहुत धार्मिक विचारों के हैं और उन्होंने नई बहु और मंदीप को भमरा जठेरों को ले के जाना था और हमें भी साथ जाना था। तब मैंने यही बुशर्ट पहनी थी। पंजाब में अब हर गाँव में अपनी अपनी जात के जठेरे हैं। यह जठेरे अपनी अपनी जात के बज़ुर्गों को याद करने और उन्हें सन्मानित करने के लिए बनाये हुए हैं। मैंने यह पहले नहीं देखे थे क्योंकि यह मेरे इंगलैंड जाने के बाद ही बने थे। इंग्लैंड जाने से पहले मैंने यह सुने ही नहीं थे, लगता है यह नए ज़माने की उपज है। पुराने ज़माने में तो लोगों के पास, रहने के लिए भी बज़ुर्गों के बनाये कच्चे घर ही होते थे और आज यह जठेरों की इमारतें बहुत अच्छी बनी हुई हैं और अपनी अपनी जात के लोग इस जगह पर धार्मिक समागम भी करते हैं।
सभी घर के सदस्यों के साथ हम भी चल दिए। मुझे कोई गियान नहीं था कि वहां जा कर किया करना था। गेंहूं के खेतों में से होते हुए हम भमरा जठेरे जा पहुंचे। खेतों के बीच में एक छोटा सा कमरा था, जिस के बीच ईंटों की एक तीन चार फुट ऊँची और इतनी ही चौड़ी एक जगह बनी हुई थी, जिन के चारों तरफ दीए रखने के लिए जगह बनी हुई थी जो दिए या मोमबत्तियों से काली हो गई थीं । इस कमरे के इर्द गिर्द छोटी सी दीवार बन रही थी और ईंटें और बज्जरी वहां पडी थी , लगता था यह जगह और बड़ी होने वाली थी। कमरे में उस छोटी सी दिए रखने वाली जगह में मोम बतीआं जगाई गई और सभी हाथ जोड़ कर खड़े मुंह से कुछ पढ़ रहे थे। निर्मल ने बताया कि यह जगह हमारे पुरखों की याद में बनाई गई थी। इस में सोचने वाली बात तो यह थी कि भमरा खानदान के किसी बजुर्ग का नाम वहां नहीं लिखा हुआ था। अकेला मैं ही वहां odd one out था और मैं सोच रहा था कि इस जठेरे बनाने का मकसद किया था जब कि किसी भी बजुर्ग का नाम वहां नहीं था और यह भी सोच रहा था कि इन जठेरों में ताऊ साहब भी शामिल होंगे जिन्होंने जीते जी हमें जीने नहीं दिया था, कई चोर उचक्के बजुर्ग भी होंगे, जिन को माथा टेकना मेरी समझ से बाहिर था । होना तो यह चाहिए था कि भमरा गोत्र का सारा नहीं तो कुछ इतिहास दीवारों पर लिखा जाना चाहिए था ताकि आने वाली पीड़ीआं इस पर खोज करतीं और हर गोत्र का इतिहास लिखा जाता। अगर मैं ऐसे शब्द वहां बोल देता तो सब मेरी सोच पर हंस पढ़ते। इस लिए मैं भी do in rome what romans do की तर्ज़ पर चुप रहा। कुछ देर बाद वहां चींटियों के एक बड़े से ढेर पर आटा डालने लगे। जानवरों को कुछ खाने को देना तो अच्छी बात है लेकिन उन को माथा टेक कर कुछ माँगना मेरी समझ से परे है। खैर कुछ भी हो हरे हरे खेतों की सैर तो हो ही गई, यह किया कम था ?
कोई बीस मिंट बाद हम वापस घर को चल पड़े। दूर तक गेंहूं के खेतों में सरसों के फूल देख देख कर तबीयत पर्सन हो रही थी। हर किसी की बन्द खोपड़ी में किया छिपा हुआ है, दूसरा कौन जान सकता है ? मैं सभी के साथ चलता हुआ भी बचपन के उन दिनों में घूम रहा था जब मैं दादा जी के साथ खेतों में काम किया करता था। मैं तो नए खेतों में पुराने खेत ढून्ढ रहा था। काश ! कोई ऐसा यंत्र ईजाद हो जाए, जिस से हर पुरानी याद की वीडियो बन सके !!!!!!!! चलता. . . . . . . . . .

9 thoughts on “मेरी कहानी 156

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक कड़ी भाई साहब ! आपकी लेखन शैली दा जबाब नहीं !

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , बहुत बहुत धन्यवाद हौसला अफजाई के लिए .

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह भमरा जी। क़िस्त पूरी पढ़ी। आपने अपनी स्मृतियों वा विचारों को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है। आपने सरसों के साग का आनंद लिया, इसे पढ़कर मुझे भी इसका स्वाद अनुभव हो आया अर्थात मुह में पानी आ गया। वस्तुतः भारत की संस्कृति वा परंपराएं महान व आनंददायक हैं। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई ,किश्त पढ़ कर आप ने जो विचार पेश किये ,उस से पर्संता हुई .

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह भमरा जी। क़िस्त पूरी पढ़ी। आपने अपनी स्मृतियों वा विचारों को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है। आपने सरसों के साग का आनंद लिया, इसे पढ़कर मुझे भी इसका स्वाद अनुभव हो आया अर्थात मुह में पानी आ गया। वस्तुतः भारत की संस्कृति वा परंपराएं महान व आनंददायक हैं। सादर।

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, समाज से जात पात का कलंक दूर हो जाए, यही हमारी भी शुभकामना है. भमरा जठेरों के बारे में आपके विचार सही लगे. मक्की दी रोटी ते सरसों दा साग, बल्ले-बल्ले. बहुत ही रोचक, नायाब व सार्थक एक और कड़ी के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन , जात पात का कलंक लोगों ने आवाज़ उठाने से ही हो सकता है .नहीं बोलेंगे तो पता नहीं अभी कितनी सदीआं लग जाएँ . कौन जाने इन पछडी हुई जातों में से कोई भारत का परधान मंत्री बन जाए .अगर एक चाय वाला बन सकता है तो कोई और क्यों नहीं .मक्की दी रोटी ते सरसों दा साग, आप ने वर्णन किया तो मेरे मुंह में पानी आ गिया .

  • राजकुमार कांदु

    आदरणीय भाईजी ! सिलसिलेवार तरीके से एक एक बात लिखने की आपकी शैली असरदार है । आज का लेख पढ़कर पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी । आपने हिन्दू समाज के टुकडे में बंटे होने को भी बखूबी रेखांकित किया है । आपका विचार पढ़कर मजा आ गया । एक और बढ़िया रोचक लेख के लिए आपका धन्यवाद ।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      राजकुमार भाई , आप का बहुत बहुत धन्यवाद . आप के कॉमेंट से मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिल रही है . जो मैं लिख रहा हूँ कोशिश कर रहा हूँ किः सब सच बिआन हो, कोई नकलीपन ना आये . सच लिखने में ही सचा आनंद है .

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