ग़ज़ल/गीतिका
खुदा भी येे कैसी इन्तिहा चाहता है
मरे को कितना मारना चाहता है
मुकद्दर में है जिंदगी भर का अंधेरा
रात में अब कोई क्यों दिया चाहता है
दिल ने बस माँगा इबादत में तुमको
अपने हक़ में अब कोई दुआ चाहता है
हर तरफ है फैला जहर मजहबों का
दिल कुछ सुकूँ की हवा चाहता है
थकने लगे हैं कदम चलते-चलते
साथ तेरे मंज़िलों का पता चाहता है
दर्द हो चला है ना-बरदाश्त अब तो
रिसता जख़्म अब तो सिया चाहता है
चख लिया है लज्ज़त-ए-इश्क जिसने
इसकी खातिर वो होना फ़ना चाहता है
मत छेड़ो शरारों को जल जायेगा तू
गम-ए-ज़िन्दगी से ये क्या चाहता है
— सुमन शर्मा
अच्छी ग़ज़ल, हालाँकि यह ग़ज़ल के नियमों में बंधी नहीं है.