गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल/गीतिका

खुदा भी येे कैसी इन्तिहा चाहता है
मरे को कितना मारना चाहता है

मुकद्दर में है जिंदगी भर का अंधेरा
रात में अब कोई क्यों दिया चाहता है

दिल ने बस माँगा इबादत में तुमको
अपने हक़ में अब कोई दुआ चाहता है

हर तरफ है फैला जहर मजहबों का
दिल कुछ सुकूँ की हवा चाहता है

थकने लगे हैं कदम चलते-चलते
साथ तेरे मंज़िलों का पता चाहता है

दर्द हो चला है ना-बरदाश्त अब तो
रिसता जख़्म अब तो सिया चाहता है

चख लिया है लज्ज़त-ए-इश्क जिसने
इसकी खातिर वो होना फ़ना चाहता है

मत छेड़ो शरारों को जल जायेगा तू
गम-ए-ज़िन्दगी से ये क्या चाहता है
— सुमन शर्मा

सुमन शर्मा

नाम-सुमन शर्मा पता-554/1602,गली न0-8 पवनपुरी,आलमबाग, लखनऊ उत्तर प्रदेश। पिन न0-226005 सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें- शब्दगंगा, शब्द अनुराग सम्मान - शब्द गंगा सम्मान काव्य गौरव सम्मान Email- rajuraman99@gmail.com

One thought on “ग़ज़ल/गीतिका

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल, हालाँकि यह ग़ज़ल के नियमों में बंधी नहीं है.

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