धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मानवता विरुद्ध निजी व संगठित हिंसा ईश्वर रोकता क्यों नहीं?

ओ३म्

आजकल देश, समाज और विश्व में निजी व संगठित हिंसा व अपराध बढ़ रहे हैं। इन हिंसा व अपराधों के कारण निर्दोष लोग मारे जाते हैं। किसी निर्दोष की हिंसा व हत्या, वह भी धर्म, मत, मजहब व सम्प्रदाय आदि के नाम पर करना, घोर पाप व अन्याय है। हम नहीं समझते कि कोई धर्म व मनुष्यों के आचरण के नैतिक नियम किन्ही भी परिस्थितियों में किसी निर्दोष की हत्या की अनुमति दे सकते हैं। सारा विश्व सभी प्रकार की हिंसाओं से आक्रान्त है और पीड़ित व मानवता प्रेमी किसी मनुष्य व सरकार को इस हिंसा के शमन का कोई उपाय सूझ नहीं रहा है। जो लोग इस काम को अंजाम दे रहे हैं, उसके पीछे राजनैतिक अर्थात् सत्तासीन होना मुख्य कारण प्रतीत होता है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये युवकों को भ्रमित किया जाता है। उन्हें सच्ची व झूठी बातें कही जाती है, उन्हें एक ही बात बार-बार कहकर उस कहावत को चरितार्थ किया जाता है कि यदि एक झूठ को सौ बार बोला जाये तो वह सच मान लिया जाता है। इसके साथ आर्थिक व अन्य अनेक प्रलोभन भी होते हैं व हो सकते हैं। आजकल समाज में भी अपराधी प्रवृत्ति के मनुष्यों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। टीवी हो या समाचार पत्र इनके द्वारा देश भर में हिंसा व अपराध की घटनाओं की जानकारी दिन भर मिलती रहती है। इनसे अनुमान लगता है कि हमारी सरकारें व कानून व्यवस्था अनेक मामलों में पंगु बन जाती हैं । ऐसा लगता है कि इन अपराधियों को कानून व व्यवस्था का किसी प्रकार का डर नहीं है। ऐसे लोग न तो व्यवस्था से डरते हैं और न इस संसार को बनाने वाले, इसका संचालन करने तथा मनुष्यों को उसके कर्मों का फल देने वाले परमात्मा से ही डरते हैं। प्रश्न उत्पन्न होता है कि ईश्वर देश विश्व में निर्दोष लोगों के प्रति होने वाली हिंसा को रोकता क्यों नहीं? क्या उसकी दया समाप्त हो गई है? क्या वह सर्वशक्तिमान होकर कोई मजबूर सत्ता है? यदि वह रोकता नहीं तो फिर प्रश्न होता है कि क्या वह इनमें सहायक तो नहीं है? ऐसे अनेक प्रश्न सामान्य मनुष्य के मन व मस्तिष्क में होते रहते हैं जिनका उत्तर प्रत्येक व्यक्ति जान नहीं पाता।

वेदों के अनुसार ईश्वर अनादि, अजन्मा, अजर, अमर, अभय, सच्चिदानंदस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, मनुष्यों सहित सभी जीवों व जीवधारियों के पूर्व जन्मों व वर्तमान जन्म के क्रियमाण कुछ कर्मों के फलों को देने वाला है। उसका नियम है कि जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता है परन्तु उन शुभ अशुभ कर्मों के फल भोगने में वह सब जीवात्मायें ईश्वर की व्यवस्था के अन्तर्गत परतन्त्र है। इसी कारण ईश्वर ने प्रत्येक जीव योनि में जन्म के कुछ काल बाद जो 10-15 वर्ष से लेकर 100 उससे कुछ अधिक वर्षों का होता है, मृत्यु का प्रावधान कर रखा है। मृत्यु के बाद तो सभी जीवों को अपने अच्छे बुरे कर्मों का फलअवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’ के अनुसार अवश्यमेव भोगना ही होता है। किसी मनुष्य का कोई अच्छा व बुरा कर्म भोगने से अवशिष्ट नहीं बचेगा। प्रश्न हो सकता है कि ईश्वर को जीव के सभी कर्मों का ज्ञान किस प्रकार से होगा, तो इसका उत्तर यह है कि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी चेतन सत्ता है, अतः वह प्रत्येक जीवात्मा के अन्दर भी विद्यमान व उपस्थित रहती है। इस सर्वव्यापकता के कारण ईश्वर सभी जीवात्माओं के सभी कर्मों का साक्षी है। कर्मों की भिन्नता अंतर के कारण ही ईश्वर ने अनन्त योनियों बनाईं हैं जिससे जिस जीव के जैसे कर्म हों, उसे वैसी ही योनि में भेजकर उसके अनुसार उसे भोग दण्ड आदि प्रदान किये जा सकें। हममें से कोई भी मनुष्य अगले जन्म में पशु पक्षी आदि बनना नहीं चाहेगा। संसार में पशुओं की भी एक जाति या प्रजाति नहीं है अपितु उनमें भी हजारों अनन्त योनियां हैं, जहां कर्मानुसार अशुभ कर्म करने वालों को इस जन्म पूर्व जन्मों के बचे हुए कर्मों का फल भोगना होगा। इस सृष्टि व उससे भी पूर्व के कल्पों से यही व्यवस्था संसार में चल रही है और आगे अनन्त काल तक भी इसी प्रकार चलेगी। हमारे व अन्य देशों में तो कानून भी हैं कि अपराध के बाद ही दण्ड मिलता है। अपराध से पूर्व व अपराध करते समय अपराधी को दण्ड नहीं दिया जाता। ऐसा ही ईश्वर के भी नियम हैं। वह जीवात्मा को बुरा कर्म न करने की प्रेरणा तो करता है परन्तु जीव के कर्म करने की स्वतन्त्रता के अधिकार के कारण उसे रोकता नहीं है। अतः ईश्वर के न्याय में विश्वास रखते हुए यही मानना उपयुक्त प्रतीत होता है कि जिस जीव ने हिंसा अन्य किसी प्रकार का अपराध किया है, उसे दण्ड अवश्यमेव मिलेगा और जो निर्दोष मनुष्य है उसे उसके प्रति अन्याय रूपी अपराध का मुआवजा अर्थात् compensation मिलेगा।

ईश्वर की इस कर्मफल व्यवस्था सिद्धान्त को यथार्थ रूप में जानने के कारण ही हमारे पूर्वजों ने सादा जीवन उच्च विचार की जीवन शैली, जिसे वैदिक जीवन पद्धति कह सकते हैं, को अपनाया था। सादा जीवन जीने पर मनुष्य से अपराध कम व न के बराबर होते हैं। इसके साथ ही सादा जीवन व्यतीत करने से पुण्य भी होता है क्योंकि हमारे जो साधन, सम्पत्ति व सुविधायें उपभोग न करने से बचेंगी, उसका लाभ हम समाज क अन्य पात्र लोगों को दे सकते हैं। इसके साथ ईश्वर ने सृष्टि की आदि में वेदों का ज्ञान देकर भी हमें जीवन के उद्देश्य से परिचित कराने के साथ हमारे लिए क्या करणीय और क्या-2 अकरणीय हैं, उन कर्तव्यों वा अकर्तव्यों का ज्ञान भी दिया है। वेदों की व्यायख्यायें बाद के शास्त्रकारों ने दर्शनों, उपनिषदों व स्मृति आदि अनेक ग्रन्थों में की हैं जिससे जनसाधारण को उसके कर्तव्य-अकर्तव्यों का बोध हो सके। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यही कार्य महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋ़ग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय और वेदभाष्य आदि की रचना कर किया है। इन सबका अध्ययन कर हमारे पूर्वज अपना यथोचित समय ईश्वर की उपासना आदि में व्यतीत करते थे जिससे वह ईश्वर से सद्-प्रेरणायें प्राप्त कर बुरे कामों से बच सकें। उन्हें यह भी ज्ञान था कि मनुष्य के निमित्त से वायु, जल व पर्यावरण में जो विकार व प्रदुषण होता है, उसको दूर करने का दायित्व भी मनुष्य पर होता है। उसे इन विकारों व प्रदुषण को दूर करने के लिए नित्य गोघृत व वायु को शुद्ध व संवर्धित करने वाली सामग्री से अग्निहोत्र भी करना चाहिये। सभी ऋषि-मुनि व गृहस्थ महाभारत व पूर्व कालों में इसे अपने नित्य कर्तव्यों में स्थान देते थे। इसी प्रकार से वह माता-पिता-विद्वानों व आचार्य आदि की सेवा सहित पशुओं व कीट-पतंगों आदि को भी यथाशक्ति भोजन आदि कराते थे। अतिथि यज्ञ भी वैदिक धर्म व संस्कृति की एक मौलिक देन है जो सारे संसार में किसी न किसी रूप में आज भी विद्यमान है। ऐसा करके विद्वानों की संगति से ज्ञानवर्धन होकर आतिथेय को उनकी शुभकामनायें भी मिलती हैं जिससे एक आदर्श मनुष्य का निर्माण होता है। इन्हीं कारणों से वैदिक धर्म व संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है और वैदिक धर्म संसार में सर्वत्र प्रचलित एवं व्यवहृत था। आज भी सारे संसार के लोगों को मिलकर इसे अपनाने व इसका प्रचार करने की आवश्यकता है। वेदों के प्रचार व प्रसार से ही विश्व में शान्ति होगी और संसार के मनुष्य श्रेष्ठ मनुष्य बनेंगे। इसी बात को ही वेदों मेंकृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ कहा गया है।

जो मनुष्य बुरे काम व हिंसा आदि कृत्य करता है उसका कारण अविद्या व अज्ञान हुआ करता है। अविद्या को दूर करने का एकमात्र उपाय हमें वेदों व वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी शिक्षाओं का पालन ही लगता है। आज हम संसार के उन्नत व विकसित देशों को देखते हैं तो हमें उनकी उन्नति का कारण वहां अधिकांश नियम, व्यवस्थायें आदि वैदिक धर्म की पूरक होने के साथ वहां के लोगों का पुरुषार्थी होना और अनुशासन प्रिय होना लगता है। वह लोग भारत के लोगों के अज्ञान व अन्धविश्वासों की तुलना में कम अज्ञानी व अन्धविश्वासी लगते हैं। वहां मिथ्या कर्मकाण्ड न के बराबर हैं। यदि वह लोग वेद ज्ञान को भी अपने जीवन में आत्मसात कर लें तो वह आदर्श मनुष्य और उनका देश आदर्श राष्ट्र बन सकता है जिसकी कल्पना वेद और वैदिक ग्रन्थों में की गई है। भारत में अविद्या का समाप्त होना असम्भव नहीं तो कठिनतम अवश्य है। इसके लिए आर्यसमाज प्रयास कर रहा है। यह प्रयास जारी रहने चाहिये। कब, कहां, किसप्रकार, क्या परिवर्तन आ जाये, कहा नहीं जा सकता? हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी दुनिया के शान्तिप्रिय देशों से मैत्री कर रहे हैं, यह देश व इसके नागरिकों की रक्षा व सुरक्षा की दृष्टि से अच्छी बात है। उनका यह कार्य देश को शक्तिशाली बनाने में योगदान कर रहा है। इसके परिणाम शुभ होने की आशा की जा सकती है। देश के मत-मतान्तरों को अविद्या से मुक्त कर उन्हें वेदोनुकूल बनाना उनके कार्यों में सम्मिलित नहीं है। यह तो सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों व अनुयायियों को विचार कर ही मिथ्या परम्पराओं का सुधार करना है। ईश्वर मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों को असत्य के त्याग व सत्य को ग्रहण करने की सद्बुद्धि दें। वह इस महत् कार्य में सहायक बनें, ऐसी प्रार्थना हम करते हैं।

हिंसा का प्रमुख एक कारण मनुष्यों में मांसाहार की प्रवृत्ति है। मांसाहार के लिए पशुओं का वध करना पड़ता है जो स्वयं में एक घिनौनी हत्या व हिंसा होती है। हिंसा से प्राप्त उसी मांस को खाने से मनुष्य का स्वभाव हिंसक होता है। यह हिंसा की प्रवृत्ति पशु वध करने, मांस काटने, बेचने, खरीदने, पकाने व खाने वाले सभी मनुष्य में आ जाती है। इसी कारण मनुस्मृति में बताया गया है कि मांस के लिए पशु हत्या करने से खाने वाले तक सभी लोग हिंसा रूपी पाप में भागीदार होते है और ईश्वरीय दण्ड के भागी होते हैं। हमें एक सम्भावना यह भी लगती है कि वेदों के पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार मांसाहारियों का पुनर्जन्म पशुओं के रूप में भी हो सकता है और उन्हें वही पीड़ा मिल सकती है जो वह अपने जिह्वा के स्वाद के लिए मूक व निरीह पशुओं को देते हैं। अतः सुखी व शान्तिपूर्ण अर्थात् हिंसा से मुक्त विश्व के लिए संसार का मांसाहार से सर्वथा मुक्त होना तथा सभी प्राणियों के प्रति दया व करुणा की भावना युक्त होना आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य है।

ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ है परन्तु वह अपने नियमों व अनुशासन में बंधा है। उसके नियम व अनुशासन यह हंै कि जीव को कर्म करने की पूरी स्वतन्त्रता उसने दी है, जिसे किसी भी स्थिति में वह उससे छीनता नहीं है। ईश्वर अपने नियमों के अनुसार कालान्तर में जीवों वा मनुष्यों को उनके कर्मों का, बीज से वृक्ष बनने के समान, यथायोग्य फल देता है। संसार का कोई भी मनुष्य इतर प्राणी अपने कर्मों के फल भोगने से बच नही सकता। इस पूरे ब्रह्माण्ड में केवल एक ही ईश्वर है। उसे अनेक नामों से पुकार सकते हैं परन्तु नाम अलग होने से उसका अस्तित्व तो एक ही रहता है। वह ईश्वर कभी किसी के पापों को क्षमा नहीं करता चाहे कोई किसी भी मत को क्यों माने। पाप क्षमा का अर्थ होता है पाप को बढ़ावा देना। अल्पज्ञ मनुष्य तो यह कर सकता है परन्तु ईश्वर सर्वज्ञ होने के कारण राग, द्वेष, माया, मोह, अपने-पराये, तेरा-मेरा के भावों व पक्षपात से शून्य है। वह जब दण्ड देता है तो मनुष्य भी उससे डर कर व दुःखी होकर प्रार्थना करते व नाना प्रकार के अच्छे संकल्प करते हुए देखे जाते हैं। अतः ईश्वर ने सारे संसार को अपने वश में कर रखा है। वह मनुष्यों को जन्म भी देता है और उनका मृत्यु के रूप में उनके शरीरों का अन्त भी करता है। पापी को दण्ड पाते हुए भी सभी लोग देखते हैं। कई बार सुनते हैं कि इससे अच्छा तो इसकी मृत्यु हो जाये। यह ईश्वर का न्याय है। ऐसे उदाहरणों से स्वयं के जीवन को सन्मार्ग में चलाने का संकल्प लेना चाहिये। किसी के प्रति पक्षपात व अन्याय अथवा अकारण हिंसा अशुभ व पाप कर्म है। इसका कठोर दण्ड हिंसा करने वालों को कालान्तर में ईश्वर अवश्य देगा। किसी का कोई पाप क्षमा नहीं होगा। सब कल्पनायें धरी रह जायेंगी। इस भ्रम व अविद्या को सभी मताचार्यों को दूर करना चाहिये अन्यथा वह भी हिंसा में सहायक होने से ईश्वरीय दण्ड के भागी होंगे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 –मनमोहन कुमार आर्य

6 thoughts on “मानवता विरुद्ध निजी व संगठित हिंसा ईश्वर रोकता क्यों नहीं?

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख ! करम प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा !! यह शाश्वत नियम है. कोई भी इससे बच नहीं सकता. जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल !

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवम हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय श्री विजय जी. कृपया इसी लेख पर नीचे श्री गुरमैल सिंह जी के कमेंट का उत्तर भी देखने की कृपा करें। सादर।

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवम हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय श्री विजय जी. कृपया इसी लेख पर नीचे श्री गुरमैल सिंह जी के कमेंट का उत्तर भी देखने की कृपा करें। सादर।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , यह अगला जनम , पिछला जनम ,कर्मों का फल ,हम भारती तो इस में ही उलझ कर रह गए और बिदेशिओं ने हमें चींटी की तरह रौंध डाला,हमारी संस्कृति तबाह कर दी और आज आधा हिन्दुस्तान मुसलमान हो चुक्का है .बंगला देश पाकिस्तान अफगानिस्तान और भारत के मुसलमान ८० करोड़ हो जाते हैं . अगर अँगरेज़ भारत में ना आते तो मुसलमान हुक्मरान आज तक बीस करोड़ और हिन्दुओं को इस्लाम धारण करने पर मजबूर कर देते . आज भी लाखों संतों के अखाड़े जनता के पैसे पर मज़े कर रहे हैं .क्या यह लोग दुश्मन से लड़ सकते हैं ? हम कहाँ गलत हैं ,हमें सोचना पड़ेगा .

    • Man Mohan Kumar Arya

      आपके विचार सत्य व यथार्थ हैं। ऋषि दयानन्द भी इस समस्या से पूर्णतः परिचित थे। अंग्रेजों का राज था और सन् 1857 के विपल्व व क्रान्ति के बाद अंग्रेजों ने हजारों व लाखों भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसी स्थिति में 18 वा 26 वर्ष बाद ही इन प्रश्नों पर विचार कर स्वामी दयानन्द ने लिखा कि अब अभाग्योदय से और आर्यों (हिन्दुओं) के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनीख् किन्तु आर्यावर्त (भारत/हिन्दुस्तान) में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों (अंगेजों व अन्य) के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े से राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था के इतिहास लिखे हैं, उसी का मान्य करना भ्रपुरुषों का काम है।

    • Man Mohan Kumar Arya

      आपके विचार सत्य व यथार्थ हैं। ऋषि दयानन्द भी इस समस्या से पूर्णतः परिचित थे। अंग्रेजों का राज था और सन् 1857 के विपल्व व क्रान्ति के बाद अंग्रेजों ने हजारों व लाखों भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसी स्थिति में 18 वा 26 वर्ष बाद ही इन प्रश्नों पर विचार कर स्वामी दयानन्द ने लिखा कि अब अभाग्योदय से और आर्यों (हिन्दुओं) के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनीख् किन्तु आर्यावर्त (भारत/हिन्दुस्तान) में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों (अंगेजों व अन्य) के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े से राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था के इतिहास लिखे हैं, उसी का मान्य करना भ्रपुरुषों का काम है।

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