गीत/नवगीत

गीत : आज़ादी

(15 अगस्त के दिन आज़ादी स्वयं इस देश से क्या कहना चाहती है? उसी आज़ादी की आत्म भाषा को बयां करती मेरी नयी कविता)

बेबस हूँ बिखरी हूँ उलझी हूँ सत्ता के जालो में,
एक दिवस को छोड़ बरस भर बंद रही हूँ तालों में

बस केवल पंद्रह अगस्त को मुस्काने की आदी हूँ,
लालकिले से चीख रही मैं भारत की आज़ादी हूँ

जन्म हुआ सन सैतालिस में,बचपन मेरा बाँट दिया,
मेरे ही अपनों ने मेरा दायाँ बाजू काट दिया

जब मेरे पोषण के दिन थे तब मुझको कंगाल किया
मस्तक पर तलवार चला दी, और अलग बंगाल किया

मुझको जीवनदान दिया था लाल बहादुर नाहर ने,
वर्ना मुझको मार दिया था जिन्ना और जवाहर ने,

मैंने अपना यौवन काटा था काँटों की सेजों पर,
और बहुत नीलाम हुयी हूँ ताशकंद की मेजों पर

नरम सुपाड़ी बनी रही मैं, कटती रही सरौतों से,
मेरी अस्मत बहुत लुटी है उन शिमला समझौतों से

मुझको सौ सौ बार डसा है,कायर दहशतगर्दी ने,
सदा झुकायीं मेरी नज़रे, दिल्ली की नामर्दी ने

मेरा नाता टूट चूका है,पायल कंगन रोली से,
छलनी पड़ा हुआ है सीना नक्सलियों की गोली से

तीन रंग की मेरी चूनर रोज़ जलायी जाती है,
मुझको नंगा करके मुझमे आग लगाई जाती है

मेरी चमड़ी तक बेची है मेरे राजदुलारों ने,
मुझको ही अँधा कर डाला मेरे श्रवण कुमारों ने

उजड़ चुकी हूँ बिना रंग के फगवा जैसी दिखती हूँ,
भारत तो ज़िंदा है पर मैं विधवा जैसी दिखती हूँ,

मेरे सारे ज़ख्मों पर ये नमक लगाने आये हैं,
लालकिले पर एक दिवस का जश्न मनाने आये हैं

बूढ़े बालों को ये काली चोटी देने आये हैं,
एक साल के बाद मुझे ये रोटी देने आये हैं,

जो मुझसे हो लूट चुके वो पाई पाई कब दोगे,
मैं कब से बीमार पड़ी हूँ मुझे दवाई कब दोगे,

सत्य न्याय ईमान धरम का पहले उचित प्रबंध करो,
तब तक ऐसे लालकिले का नाटक बिलकुल बंद करो,

— कवि गौरव चौहान

One thought on “गीत : आज़ादी

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम गीत !

Comments are closed.