कविता : कभी बँद करूँ मैं मुठ्ठी
कभी बँद करूँ मैं मुठ्ठी, कभी बँद मुठ्ठी मैं खोलूँ…
क्या ढूंढ़ती हूँ इनमें, ये राज कैसे बोलूं !
हाथों की जोड़ के लकीरें, इक अक्स हैं बनाते…
फिर करके बँद मुठ्ठी, उसको ही हैं छुपाते !
ये अक्स पाने की खातिर,न जाने कितने रूठे…
जो मेरे थे कभी अपने, उन सबके साथ छूटे !
एे काश ऐसा होता, कि मेरे ख्वाब पूरे होते…
तो छोड़ कर लकीरें, हम ख्वाब ही सजोते !
ख्वाबों-ख्यालों की दुनिया, यूँ तो बड़ी हसीं है…
सब मिल जाता है इसमें, हकीकत में जो नहीं है !
सब मिल जाता है इसमें, हकीकत में जो नहीं है !!
अंजु गुप्ता