जनक नन्दिनी
जनक नन्दीनी समझ न पायी, भाग्य लिखा जो लेख था ।
जीवन मे वनवास लिखा था, ये ह्रदय चाहे नेक था ।
पहले सीता के दामन पर, रावण ने दाग लगाया था ।
अग्नि परीक्षा देकर उसने, खुद को पाक बताया था ।
लौट अयोध्या सोचा उसने, सुख की बैरा आयी है ।
जीवन का संघर्ष छटा अब, सुख की बदरी छायी है ।
ज्यादा न थी नेह की वर्षा, और खुशीयो का डेरा ।
जल्द आकर उसको फिर से, जग के तानो ने घेरा ।
सुनकर बाते इक मानव की, श्री राम विचलित हुए ।
मर्यादा को ठेस लगी तो, फूल मद मुकुलित हुए ।
स्वर्ण सी पावन सीता मां, को वनवास पठाय दिया ।
पलभर को भी कापा न क्यों, श्री राम का हाय! जिया ।
वैदेही व्याकुल होकर के, वन वन में थी घूम रही ।
कोख लिए श्री राम सुतो को, मुर्छित हो धरती चूम रही ।
क्रमश: शेष कुछ समय पश्चात
— अनुपमा दीक्षित मयंक