लघुकथा – भूल
सुबह होते ही रीतू का झुंझुलाना शुरु हो जाता है.और जब तक सो न जाये तब तक उसका यह नित्य कर्म चलता रहता है.बोली पता नहीं कहा से आ मरना था उन्हें भी खुद तो मौज कर रहे हैं और मेरा जीना मुश्किल कर दिये हैं. मेरा हंसता खेलता परिवार उजाड़ दिया.अब न चैन से जी सकती हूं न मर सकती हूं.आज दस साल हो गये रीतू अपने पति से तलाक ले चुकी है.और अकेले रहती है.एक अंजान शहर में वहां न कोई उसकी परवाह करता है और न ही वह किसी की.दिन भर कुढ़ती रहती है मन ही मन अपने ऊपर.कभी-कभी ये मन के भाव मुंह से निकल भी जाते हैं.पता नहीं क्या भुनभुनाती रहती है.लोग उसे पागल कहते हैं.लड़के कहते हैं दिमाग पंचर हो गया हैं.कुछ कहते हैं दिमाग के पेंच ढीले हो गये हैं.
रीतू का अपना एक परिवार था हंसता खेलता.उसका पति था शरद उसे दिलो जान से मानता था.पर बीच में हर बात पर टांग लड़ाते रहते थे रीतू के जीजा महोदय सुरेश जी.बचपन से ही रीतू सुरेश के यहां ही पढ़ी लिखी थी.इसलिये वह कोई भी काम बिना सुरेश से पूछे नहीं करती थी.यही गलतफहमी का शिकार था सुरेश जो रीतू पर अपना एकाधिकार समझने लगा था.अब वह उसके हर काम में दखल लेना अपना स्वाभिमान समझता था.यही बात शरद को अखरती थी कि – रीतू मेरी पत्नी है या सुरेश की .जब वह मेरी है तो हर बात पर सुरेश का नाम क्यों लेती है. इन्हीं सब बातों से तंग आकर एक दिन शरद ने रीतू को हमेशा के लिये त्याग दिया.क्योंकि कोई भी पुरुष अगर उसके रागों में लहू है तो अपनी प्रेमिका पत्नी को दूसरे के हाथ का खिलौना बनते नहीं देख सकता.