मजबूर बचपन
मजबूर बचपन
मजदूर के बच्चों का
पत्थर को
सिरहाना बना कर
सो रहा था
और गले लगा कर
मजबूरी को
ख्वाब लेता
रहा रात भर
सुनहरे दिन के
आँखों के सामने
खुशियाों के बादलों
पर बैठ कर झूम रहा
था बचपन
स्वपनलोक में आज़ादी से
घूम रहा था बचपन
चंद बूँदें क्या लगी !!
पानी की
आँख खुल गई
सपनों ने दरवाजे बंद
कर लिये और
हकीकत ने तमाचा मार कर
जगा दिया हालातों के समंदर में
सोचा अब मुँह धोकर
लड़ी जाये वो लड़ाई
जो केवल आखिरी साँस
के टूटने तक चलेगी
गरीबी की
— परवीन माटी