गीतिका/ग़ज़ल

कुछ दिन का बसेरा

काशी ना मेरी ‘ काबा ना तेरा है ‘
ये दुनिया तो पगले ‘कुछ दिन का बसेरा है ।।

रह जायेंगे यही पर ‘ यह महल ओ चौबारे ‘
दो गज मिले जो तुझको ‘ बस उतना ही तेरा है ।।

फिर क्या मिलेगा तुझको ‘ सब छूटेंगे यहीं पर
क्यूँ खुशियों के दामन पर ‘ मरघट का बसेरा है ।।

कुछ ना मिलेगा आपस में ‘ लड़ के ओ मेरे भाई
झेलोगे तकलीफें भी ‘ जग में होगी रुसवाई ।।

फिर क्यूँ लड़ें आपस में ‘ न कुछ तेरा है न कुछ मेरा है ‘
क्यूंकि
ये दुनिया तो पगले ‘ कुछ दिन का बसेरा है ।।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।