मेरी कहानी 166
दिन मज़े से गुज़र रहे थे। ऐरन को स्कूल ले जाना और स्कूल बन्द होने पर उस को ले आने में भी एक नशा सा था। पोते पोतियों का भी एक नशा ही होता है। इसी लिए तो अक्सर कहते हैं कि मूल से विआज पियारा होता है। नर्सरी की ओर से कई दफा सीसाइड पर ले जाया जाता था और साथ में माँ बाप या दादा दादी जा सकते थे। संदीप जसविंदर क्योंकि काम पर होते थे, इस लिए हम दोनों ऐरन के साथ चले जाते थे। एक दफा बच्चों की एक कोच भर कर ब्लैकपूल को गई और ऐरन के साथ हम दोनों थे। दिन बहुत अच्छा था। तीन घंटे का सफर था। इस सारे सफर में सड़क के दोनों तरफ जब फ़ार्म आते तो इन में घास खा रही गाये को देख कर ऐरन बहुत खुश होता। कभी कभी भेड़ बकरियां भी होतीं और मैं ऐरन को बताता कि मैं भी जब छोटा था तो इन गायें और छोटे छोटे बछड़ों को घास खिलाने के लिए ले जाया करता था। इस पर ऐरन मुझ पर बहुत से सवाल करता। जब मैं उस के सवालों के जवाब देता तो वोह बहुत हैरान होता। फिर जब हम ब्लैकपूल पहुंचे तो मैंने ऐरन को कहा कि जो जो हम ने देखना था, वोह याद रखे और घर जाने पर मैं उस को पूछूँगा। ब्लैकपूल पहुँचने पर पहले ही हम फन फेयर में जाने लगे तो शुरू में ही लाफिंग मैन सामने था, और बहुत से लोग इस को देख कर हंस रहे थे। पहले तो देख कर ऐरन घबरा गया लेकिन कुछ देर बाद हंसने लगा। लाफिंग मैंन ऐसा था कि उसे देख कर कोई भी हंसे बगैर रह नहीं सकता था। पांच छै फ़ीट ऊंचे एक प्लैटफार्म पर यह बुत्त रखा हुआ था जो बिलकुल एक बड़े आदमी की शक्ल में था, खुले कपडे और एक बड़ी हैट में यह एक पागल जैसा दिखाई देता था, जो लगातार हंसे जा रहा था। कभी कभी बीच हंसना बन्द हो जाता और फिर अचानक एक दो दफा थोह्ड़ा सा हीं हीं करता, ठहर जाता और फिर एक दम जोर जोर से इतना हंसता कि वोह झुक जाता। झुक झुक हंसता और फिर जोर से सांस खींच कर इतने जोर से हंसता कि देखने वाले सब हंसे बगैर रह न सकते।
इस लाफिंग मैन को ऐरन ने बहुत सालों तक याद रखा। इस के बाद हम फन फेयर में घुस गए। यहां बहुत शोर था। ऐरन क्योंकि बहुत छोटा था, इस लिए उस की आयु के हिसाब से ही हम उस तरफ चले गए, यहां छोटी छोटी राइड थीं। तकरीबन दो घंटे हम इस फन फेयर में रहे और बाहर आ गए। सीसाइड पर एक कैफे में हम बैठ गए और फिश ऐंड चिप्स खाने लगे और इस के बाद कोक पिया। कुछ देर आराम करने के बाद हम सीसाइड पर आ गए। समुन्दर का पानी काफी दूर था और दूर दूर तक रेत ही रेत दिखाई देती थी। कुछ गोरे गोरीआं डैक चेअर पर बैठे धुप का मज़ा ले रहे थे। उन के बच्चे रेत से सैंड कैसल बना रहे थे। बहुत रौनक थी। एक गोरा बच्चों को डौंकी राइड दे रहा था। वोह बच्चों को डौंकी के ऊपर बिठा देता और रेत के ऊपर दूर दूर तक ले जाता। माता पिता उन की फोटो खींचते। ऐरन इस गधे को देख कर खुश तो होता था लेकिन इस के ऊपर बैठने को राजी ना होता। हम चाहते थे कि ऐरन उस डौंकी पर बैठे और हम उस की फोटो खींचें ताकि जब वोह बढ़ा हो तो हम उस को दिखाएं लेकिन ऐरन माना नहीं। अब हम उस को समुन्दर की लैहरें दिखाने के लिए चल पढ़े। पानी अब ज़्यादा दूर नहीं था, कुछ नज़दीक आ गया था । जल्दी ही पानी के किनारे पर आ गए और हम ने जूते उतार लिए और ठन्डे ठन्डे पानी में चलने लगे। जगह जगह जैली फिश पडी थी जो बिलकुल जैली की तरह थी। शायद इसी लिए इस का नाम जैली फिश पड़ा होगा। कुछ देर हम पानी में चलते रहे। फिर ऐरन कहने लगा, बाबा ! शू शू करना है !, मैंने उस की पैंटी नीची की और उस ने शू शू कर दिया। बात तो यह मामूली ही है लेकिन इस बात को ऐरन बहुत सालों तक दुहराता रहा। यहां बीच पर आने से पहले हम ने एक दूकान से ऐरन के लिए प्लास्टिक की छोटी सी शवल ( प्लास्टिक का छोटा सा फावड़ा )और एक पैन (pan ) खरीद लिए थे। यह दोनों चीज़ें बच्चों के लिए सभी खरीदते हैं क्योंकि इन से वोह सैंड में सैंड कैसल बनाते हैं, कुछ बच्चे शवल से बड़ा सा गढ़ा खोद कर उस में लेट जाते हैं और दूसरे बच्चे उस पर सैंड डाल देते हैं, इस तरह सिर्फ सर बाहर रह जाता है और सभी बच्चे इस से खुश होते हैं। कई बच्चे सैंड को इकठा करके बड़ा सा ढेर लगा देते हैं और फिर उस सैंड से कोई जानवर या कोई घर बनाना शुरू कर देते हैं। इस से बच्चे खुश भी होते हैं और उन्हें कुछ बनाने की चाहत भी पैदा होती है, जिस को वे अपने नर्सरी स्कूल में इस्तेमाल करते हैं।
कुछ वक्त बीच पर बिताने के बाद हम ऊपर फुटपाथ पर आ गए। फुटपाथ के साथ सड़क पर कारें चल रही थीं। हमारे पैरों पर रेत लगी हुई थी। एक जगह पानी की टूटी लगी हुई थी, उस पर हम ने पैर धोये और तौलिये से साफ़ करके जूते पहन लिए। एक बच्चे के हाथ में आइस क्रीम देख कर ऐरन बोला, ” बीबी ! आई वांट आइस क्रीम “, सड़क के दुसरी ओर ही कॉफी ऐंड आइस क्रीम बार थी। रोड क्रास करके हम इस बार में चले गए। बार के बाहर भी बैंच और टेबल रखे हुए थे। सुहावनी धुप थी, इस लिए हम बाहर ही बैठ गए। रंग बिरंगी आइस क्रीम के तीन टब मैं ले आया। टब काफी बड़े थे। आइस क्रीम बहुत मज़ेदार लग रही थी और जी भर कर खाई। कुछ देर हम बैठे रहे। ऐरन थक गया था। ऐरन की पुश चेअर हम साथ ही ले आये थे। ऐरन को पुश चेअर में बिठाया और कुलवंत पुश चेअर को धकेलने लगी। चलते चलते ऐरन सो गया था। पुश चेअर लिए हम दुकानों में गिफ्ट देखते रहे और कुछ खरीदा भी लेकिन याद नहीं किया। ऐसी जगहों पर तरह तरह की टॉफीयां और ख़ास कर सटिक ऑफ रौक तो सभी लेते ही हैं। यह सटिक ऑफ रौक मोटी मोम बत्ती जैसी होती हैं, जो खंड में तरह तरह के ऐसैंस मिला कर बनाई होती हैं और इस पर कई रंगों की लकीरें सी बनी होती हैं, लेकिन सख्त और खाने में क्रंची होती हैं। ओ सकता है अब यह इंडिया में भी मिलती हो। हम ने एक दर्जन खरीद लीं। कुछ देर घूमने के बाद ऐरन जाग गया था और उठते ही बोला,” बाबा ! हंगरी !”, वैसे तो सभ जगह खाने की दुकानें थीं लेकिन हम घर से ही कुछ पराठे और साथ में खाने के लिए कुछ ले आये थे। बैठ कर खाने के लिए हम जगह ढूंढने लगे। ज़्यादा दूर हमें जाना नहीं पड़ा। कुछ आगे जा कर बच्चों के लिए छोटी सी एक प्ले ग्राउंड थी और यहां काफी बैंच थे। एक बैंच पर हम बैठ गए। कुलवंत ऐरन को पराठा देने लगी और मैं चाय लेने चला गया। नज़दीक ही एक बर्गर और हॉट डॉग बेचने वाले की वैन खड़ी थी जो चाय भी बेचता था। तीन कप्प चाय के मैं ले आया और मैं भी पराठे खाने लगा। बाहर आ कर पराठे खाने का भी एक अपना ही मज़ा होता है, पता नहीं क्यों। हो सकता है बाहर घूम घूम कर हम थक्क जातें हैं और भूख चमक उठती है या खुले में खाने में भी कोई भेद हो।
हम अकेले ही सारा दिन घुमते रहे क्योंकि इस कोच में ज़्यादा गोरे गोरीआं और उन के बच्चे ही थे। यहां की जन्मी पली दो लड़कियां अपने बच्चों के साथ थीं लेकिन वोह भी अपने आप में ही थीं, किसी से मिक्स अप्प नहीं होती थीं। हमें तो इस से कोई फर्क नहीं था, हाँ अगर कुछ लोग होते तो साथ हो जाता। शाम तक हम घुमते रहे और छै बजे कोच पार्क में आ गए और अपनी कोच में बैठ गए। कुछ देर बाद कोच चल पड़ी। मोटर वे पर कोई रश नहीं था। ऐरन सो गया था। 9 बजे हम ऐरन के स्कूल पहुँच गए। गाड़ी हम सुबह यहां ही खड़ी कर गए थे। पांच मिंट में हम घर आ गए। वैसे तो ब्लैकपूल का सफर कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी लेकिन इस से ऐरन के ज़हन में बचपन की वोह याद हमेशा के लिए पक्की हो गई। यह बिलकुल ऐसे ही था जैसे मेरे ज़हन में देहरादून की पहली याद वसी हुई है। इस देहरादून से ही मेरा बचपन शुरू होता है और यह याद मेरे लिए बहुत मीठी है। हर रोज़ मैं ऐरन से पूछता,” क्या किया देखा ब्लैकपूल में ?”, तो वोह शुरू हो जाता, “पहले हम ने cow देखि , फि आ आ आ sheep देखि, फि आ आ आ हा हा हा मैन देखा, फि आआआ डौंकी देखा, फि आ आ आ पानी देखा, फि आ आ आ शू शू किया!। इस पर आ कर ऐरन जोर जोर से हंसने लगता। जो जो देखा था वोह सारा बोल देता। उस की इन बातों से हमें वोह ख़ुशी होती, जो किसी को बताई नहीं जा सकती। जब हम ब्लैकपूल घूम रहे थे तो वहां सड़क पर एक युवा जापानी लड़का लोहे की पतली पतली तारों से तरह तरह के डिज़ाइन बना रहा था। हम ने ऐरन से पुछा था,” तेरे ममी डैडी के लिए कुछ बना लें ?” ,ऐरन ने खुश हो कर हाँ कहा तो हम ने उस जापानी को डिज़ाइन दिखाने को कहा। उस के पास बहुत से डिज़ाइन थे। एक डिज़ाइन में मम्मी डैडी बना हुआ था। हम ने उस को यह बनाने के लिए बोल दिया। उस लड़के के पास ऐसी तारों के बंडल थे। उस ने इन तारों को ब्लो लैम्प से बनाना शुरू कर दिया। बलो लैंप की गर्मी से तार नर्म हो रही थी और वोह जापानी लड़का इतनी सफाई से अक्षर बना रहा था कि हम खड़े हैरान हो रहे थे। पांच मिंट में उस ने एक फ्रेम बना दिया, जिस के बीच तार से ही ममी डैडी बन गया था। घर आ कर ऐरन ने बहुत ख़ुशी से अपने ममी डैडी को दिया। ऐसी छोटी छोटी खुशीआं कितनी मीठी होती हैं। अब तो ऐरन 15 वर्ष का हो गया है लेकिन कभी कभी वोह पुरानी बातें याद आ जाती हैं।
काम से तो हम को कब से फुर्सत हो गई थी, इस लिए हमारे पास अब वक्त ही वक्त था। गियानी जी टाऊन के बिलकुल दुसरी तरफ रहते थे, इस लिए उन्हों से मिलना बहुत कम हो गया था। मुश्किल से छै महीने बाद ही हम उन्हें मिलने जाते थे। वोह अपने छोटे बेटे कुलवंत के साथ रहते थे। छोटा बेटा कुलवंत बहुत ही समझदार लड़का है। उस की पत्नी भी बहुत अच्छे सुभाव की है। यहां गियानी जी बहुत पर्सन थे। बड़े बेटे जसवंत जो कभी मेरे साथ फैक्ट्री में जाया करता था,से गियानी जी के नाज़ुक सुभाव का कोई मेल नहीं था। इस घर में गियानी जी का एक प्राइवेट कमरा था, जिस में बहुत सी धार्मिक किताबें, कुछ इतिहास की और कुछ सिहत संबंधी किताबें रखी होती थीं। एक तरफ एक टेप रिकार्डर थी जिस के लिए गुरबाणी शब्दों की बहुत सी कैसेट रखी हुई थीं। एक ग्रुप फोटो थी जिस में गियानी जी और उन के बहुत अच्छे दोस्त की पुरानी तस्वीर थी, जिस का ज़िक्र वोह अक्सर किया करते थे, जब वोह कभी श्रोमणि कमेटी अमृतसर में बतौर इंस्पेक्टर के काम किया करते थे। उन का काम बहुत से गुरदुआरों के अकाउंट को चैक करना होता था। बहुत दफा गियानी जी उन दिनों की बातें कर कर के हमें हंसाते रहते थे। सिर्फ जसवंत और उस की पत्नी के सिवाए घर के सभी लोगों ने गियानी जी से बहुत कुछ सीखा था, यहां तक कि उस की पोती शैरन ने अपने पहले बेटे का नाम अपने दादा, गियानी जी के नाम पर (अर्जन सिंह ) ही अर्जन रखा था। गियानी जी अक्सर कहा करते थे कि नरक स्वर्ग तो इसी धरती पर है और यह बात गियानी जी के लिए सही साबत हुई थी क्योंकि आखर तक उस के सभी बच्चों ने गियानी जी को इतना खुश रखा कि वोह सीधा कह देते थे कि वोह तो स्वर्ग में रहते थे। इस में कोई बेतुक्की बात भी नहीं थी क्योंकि उन की इज़त सब लोग करते थे।
मुझे याद है, एक दिन ऐरन को स्कूल छोड़ कर हम दोनों गियानी जी को मिलने चले गए। घर गए तो घर में कुलवंत की पत्नी और बीबी ( गियानी जी की पत्नी उधम कौर ) ही थे। हम उस को सभी बीबी कह कर ही पुकारते थे। बीबी ने हमें माँ जैसा पियार दिया था। इतने साफ़ दिल की स्त्री मुझे आज तक नहीं मिली। हमारी दोनों बेटियों को उस ने एक दादी की तरह पाला था। बीबी ने हमें गले लगा कर पियार दिया और उलाहने से बोली कि हम इतनी देर से क्यों आते थे। कुछ देर बातें करके मैंने गियानी जी के बारे में पुछा तो बीबी ने बताया कि वोह बाहर गार्डन में काम कर रहे थे। मैं उठ कर गार्डन में चला गया। गियानी जी बैठे बैठे पिआजों के एक छोटे से प्लाट में से घास और जड़ी बूटी निकाल रहे थे। मुझे देखते ही बोले, ” आ बई गुरमेल ! किदां, सब ठीक ठाक है ?”, मैंने कहा गियानी जी ! आप की खेती बाड़ी तो कमाल की है। गियानी जी सुन कर खुश हो गए और उठ कर मुझे दिखाने लगे। इस छोटे से प्लाट में पिआज, मूलियाँ, मेथे, और दो लाइनों में आलू बीजे हुए थे। मुझे देख कर बहुत हैरानी हुई कि पिआज बड़े बड़े हो गए थे और मेथे तो एक फुट ऊंचे थे। इतने ऊंचे मेथे इंगलैंड में किसी के गार्डन में नहीं देखे थे। फिर गियानी जी मुझे ग्रीन हाऊस दिखाने लगे, जिस में बैंगन, शिमला मिर्च और कीऊकम्बर लगे हुए थे। यह चीज़ें खुले में इंगलैंड में बीजना बहुत मुश्किल है क्योकि मौसम इतना अनकूल नहीं है। मैंने कहा, ” गियानी जी! इंगलैंड जैसे मौसम में इतनी अछि सब्ज़ियां आप ने लगा रखी हैं, यह तो कमाल है “, गियानी जी कहने लगे,” गुरमेल ! डेडीकेशन से किया कुछ नहीं हो सकता ?”, और फिर वोह पुरानी बातें बताने लगे जो मैंने उन से पहले भी सुन रखी थीं। गियानी जी बोले, ” जब बापू मर गया तो मैंने काम छोड़ कर खेती शुरू की थी, लोग हंसते थे कि यह पाढ़ा (school boy ) किया खेती करेगा, जब हल चलाना शुरू किया तो बैल दौड़ गए, लोग हंसते थे लेकिन मैंने अपना हठ नहीं छोड़ा, खेती की जितनी भी किताबें मिलीं, पढ़ीं और सारे गाँव में मेरी फसल सब से उत्तम हुई”, बातें करते करते हम अंदर आ गए।
सत सिरी अकाल गियानी जी, कुलवंत ने कहा और गियानी जी ने पिंकी रीटा और संदीप का पुछा। बातें करने लगे। चाय तैयार हो गई थी। कुलवंत की पत्नी कश्मीरों ने मेज़ पर बहुत कुछ रखा हुआ था। हम खाने लगे और पुरानी बातें करने लगे। अचानक कुलवंत भी आ गया। उस का स्कूल ऑफ मोटरिंग था और लैसन दे कर आया था। कुलवंत हंस हंस कर बातें करने लगा। कुलवंत में सभी गुण गियानी जी के हैं। बहुत ही अच्छे सुभाव का है। चाय पी के कुलवंत फिर किसी को लैसन देने के लिए चले गया। मैं और गियानी जी उठ कर गियानी जी के कमरे में आ गए और गियानी जी मुझे एक किताब दिखाने लगे चलता। . . . . . .