ग़ज़ल : सत्रह लाख सिर
ठग गया विश्वास फिर से क्या कहूँ मैं क्या हुआ।
फिर मुझे लगता है मेरे साथ इक धोखा हुआ।
बेच मत देना शहीदी खून को इस बार फिर,
चुप न बैठेंगे अगर इस बार ये सौदा हुआ।
एक बेटे के लिए इससे बुरा दिन और क्या!
उसकी माँ पर ग़र उसी के सामने हमला हुआ
शेर है तो शेर जैसा वार भी तो चाहिए।
किस सियासी चाह में सीना बता छोटा हुआ।
बीन सुननी है नहीं मुझको सपेरे जान ले,
विष भरा फन चाहिए इस बार तो कुचला हुआ।
ला सके सत्रह के बदले ग़र न सत्रह लाख सर,
बेरहम दुश्मन से फिर बदला भी क्या बदला हुआ।
कह रही दुनिया जिसे ये देश है सबसे जवां,
अब कहीं कहने न लग जाये कि ये मुर्दा हुआ।
— प्रवीण श्रीवास्तव ‘प्रसून’