कहानी : रेल रोको
महँग़ाई तो हमेशा ही बढ़ती आई है, सरकार तान्खुआह ना बढाए, बातें होती रहे, कोई मांग मानी ना जाए तो कर्मचारियों के लिए रास्ता ही क्या रह जाता है ! रेलवे के कर्मचारी कब से रेलवे विभाग से बातें कर कर के थक गए थे। यूनियन अपना सारा जोर ला चुक्की थी लेकिन रेलवे विभाग टस से मस नहीं हो रहा था। अब एक ही रास्ता रह गया था, “रेल रोको मुजाहरा”, यूनियन के मैम्बरों की वोटिंग शुरू हो गई। 75 % मैम्बरों ने रेल रोको के हक़ में वोट डाली। बहुत लोग थे, जिनकी अपने घर की मजबूरियां थीं और इस रेल रोको हड़ताल के खिलाफ थे। जो इस हड़ताल के हक़ में थे और जो लोग इस हड़ताल के खिलाफ थे, उन के आपस में झगडे होने शुरू हो गये। रोज़-रोज़ ऐसी घटनाएं सुनने को मिलतीं, जब एक दूसरे के घर में जाकर झगड़ा करते। जो हक़ में नहीं थे, उनका कोई चारा नहीं चला और यूनियन ने रेल रोको हड़ताल का रेलवे विभाग को नोटिस दे दिया। अखबारों और टीवी चैनलों में ख़बरें आने लगीं। लोगों में बातें होने लगी थीं, कुछ लोग बोलते “कुछ नहीं होगा” और कुछ बोलते, यह स्ट्राइक होगी और लोगों के लिए मुसीबत आएगी”
सुबह से ही रेल कर्मचारी झंडे और बैनर ले कर रेलवे लाइन पर जमा हो गए थे। जिस रेल गाड़ी को रोकना था, वोह बहुत दूर के किसी शहर से आ रही थी। रेलवे लाइन पर दूर-दूर तक मुजाहराकर्ताओं के झंडे और बैनर दिखाई दे रहे थे। कुछ देर बाद दूर से गाड़ी आती दिखाई दी, हल चल शुरू हो गई, कई लोगों के सीने धड़क रहे थे कि कहीं गाड़ी ना रुकी तो किया होगा। कुछ लोगों ने झंडे ऊपर उठा कर नारे लगाने शुरू कर दिए, ज़िंदाबाद मुर्दाबाद का शोर हर तरफ सुनाई देने लगा। दूर से आती गाड़ी धीरे-धीरे चलती मुजाहराकर्ताओं के आगे आकर खड़ी हो गई। अब जोश चरम सीमा तक पहुँच गया था। पत्रकाओं के रिपोर्टर और टीवी कैमरे वाले अपना काम करने लगे। स्कूलों और कॉलजों के विदयार्थी गाड़ी में से बाहर आ गए। उनको चिंता स्कूल कालज पहुँचने की हो रही थी। रेल गाड़ी का ड्राइवर और उसका सहायक भी आकर मुजाहरा कर्ताओं से बातें करने लगे लेकिन उनको कोई सुनता दिखाई नहीं दे रहा था। हर कोई मोबाइल पे सन्देश भेज रहा था। टैक्सीयां रिक्शे भी बहुत जमा हो गए थे। जिन यात्रियों ने दूर नहीं जाना था, वोह टैक्सीयों और रिक्शे वालों से मोल भाव कर रहे थे। यात्रियों के चेहरों पर परेशानी झलक रही थी। जैसे जैसे सूर्य ऊपर उठ रहा था, गर्मी बढ़ती जा रही थी और जो बूढे लोग, स्त्रियां और बच्चे गाड़ी में बैठे थे, उनके पसीने छूट रहे थे। जो लोग बीमार थे, दुखी हो रहे थे। जिन लोगों ने संडास जाना था, उनके पास कोई चारा नहीं था और बदबू से वातावरण असहनय होता जा रहा था।
गाड़ी से एक बुढ़िया आ कर ऊंची ऊंची बोलने लगी,”ए भाई ! हाथ जोड़ती हूँ, गाड़ी को जाने दीजिये, मेरी बहन का इंतकाल हो गया है और मैं वक्त पर पहुंचना चाहती हूँ “, लेकिन किसी ने बुढ़िया की ओर ध्यान नहीं दिया। एक लड़की बोलने लगी कि गाड़ी में उनके पिता जी बहुत परेशान थे क्योंकि वोह दिल के मरीज़ थे। स्कूलों के बहुत से लड़के लड़कियां रेलवे लाइन के साथ साथ दौड़ रही थीं, शायद उनके स्कूल कुछ मील के फासले पर हों। जैसे जैसे वक्त बीत जा रहा था, गाड़ी के भीतर गर्मी बढ़ती जा रही थी और सब लोग बाहर आ गए। पानी की कमी सब को सता रही। हमारी सभ्यता का भी कोई जवाब नहीं, रेलवे लाइन के पास रहने वाले कुछ लोग पानी की बाल्टीआं ले आये थे और लोगों को पानी पिला रहे थे और यात्रियों से असीसें ले रहे थे। ऊंची ऊंची ज़िंदाबाद मुर्दाबाद नारों से मुजाहरा कर्ताओं का जोश ठंडा पढ़ रहा था। कोई मिनिस्टर या रेलवे अधिकारी नहीं पहुंचा था। पुलिस भी आ गई और लाठी चार्ज होने लगा। टीवी वाले धड़ा धड़ न्यूज़ भेज रहे थे। टैक्सीयों और रिक्शे वालों की चांदी हो रही थी। रेल गाड़ी के यात्री बहुत मुश्किल घड़ी में थे, उन की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वोह किया करें।
आखिर बहुत देर बाद कोई रेलवे अधिकारी आया और मुजाहरा कर्ताओं से बात चीत करने लगा। कभी शोर मचता, कभी सब शांत हो जाते लेकिन किसी की समझ में नहीं आया कि क्या बात हुई। धीरे धीरे भीड़ ख़तम होने लगी और गाड़ी चल पडी। दूसरे दिन सभी अखबारों में इस रेल रोको हड़ताल की फोटो छपी थीं और इस पर बड़ी बड़ी सुर्खियां थी, बहुत विदयार्थी परीक्षा नहीं दे सके, एक शख्स को रेल में दिल का दौरा पड़ गया, टैक्सी और रिक्शे वालों ने रेल यात्रियों को जी भर के लूटा, एक बुडीया अपनी मरी हुई बहन का मुंह नहीं देख सकी। इस मुश्किल घड़ी में लोगों ने प्यासे यात्रियों को पानी पिलाया। ऐसा और भी बहुत कुछ लिखा हुआ था। तीसरे दिन किसी भी अखबार में रेल रोको मुजाहरे का ज़िक्र नहीं किया गया था लेकिन जिन लोगों का नुक्सान हुआ था या उनको इतना परेशान होना पड़ा था उनको सब लोग भूल गए और कुछ दिनों बाद ऐसा महसूस होने लगा जैसे कुछ हुआ ही ना हो।
— गुरमेल सिंह भमरा