उलझनें दिल की
मेरे दिल की उलझनें कम नहीं हो रही हैं।
ये मेरी आँखें नहीं ये मेरी वफ़ाएँ रो रही हैं।
सोचा था हर निशानी उस बेवफा की जला दूंगी मैं।
चाहे लाख जतन करने पड़े उस को भुला दूंगी मैं।
पर हर बार नाकाम रही कोशिश उसे भुलाने की।
दिल तो आस लगाये बैठा है उसके लौट आने की।
मिली जुदाई मोहब्बत में तो कोसता है किस्मत को।
लेकिन नादाँ दिल क्या जाने उसकी फितरत को।
दिल से खेलकर दिल को तोड़ना उसकी आदत है।
पर दिल समझता है मोहब्बत तो उस खुदा इबादत है।
सुलक्षणा तुम ही कहो नादाँ दिल को कैसे समझाऊँ मैं।
इस टूटे हुए दिल से मोहब्बत के तराने कैसे गाऊँ मैं।