कविता : बुजुर्ग
आहिस् से आते
कंपकंपाते
हाथों को देखकर
सोचा कि इक गीत लिखूँ
झुर्रियों से सराबोर उसका शरीर
देख,सूती धोती जनेऊ गले में
बंधा रहा था उसको धीर
इन टूटी तारों से कैसे
मैं नया संगीत लिखूँ
आहिस्ता से आते
कंपकंपाते
हाथों को देखकर
सोचा कि इक गीत लिखूँ
अटल, झुका हुआ मगर
बिना हारे
चुनौती अब भी, बेशक लकड़ी के सहारे
दुनिया के संग्राम में कैसे
मैं उसकी जीत लिखूँ
आहिस्ता से आते
कंपकंपाते
हाथों को देखकर
सोचा कि इक गीत लिखूँ
कठिनाई, मजबूरियां
परेशानी, अपनों से दूरियां
इन सब से कभी ना वो भागा है
दशकों बीत गये मगर
आस्था का आज भी
गले में धागा है
आडंबर, पाखंड के बाजार में कैसे
मैं उसकी रित लिखूँ
आहिस्ता से आते
कंपकंपाते
हाथों को देखकर
सोचा कि इक गीत लिखूँ
पोते-पोतियों से घिरा वो
प्यार, स्नेह की बातें है कहता
उसके अंगोछे की सिलवटों में
अनुभव है रहता
गिले-शिकवे, ईर्ष्या, द्वेष
की आँधी में कैसे
मैं उसकी प्रीत लिखूँ
आहिस्ता से आते
कंपकंपाते
हाथों को देखकर
सोचा कि इक गीत लिखूँ