उपन्यास अंश

नई चेतना भाग-३

” हाँ माँ ! वही धनिया । अपने कारखाने में ही काम करती है । बहुत अच्छी और मेहनती लड़की है माँ । आपको बहुत खुश रखेगी । आपकी सेवा करेगी । ” अमर एक ही सांस में कई बातें बता गया ।

” बेटा ! ये तुने क्या किया ? पसंद किया भी तो किसे ? वो जो गाँव में रहने के लायक भी नहीं । ऐसे लोगों से रिश्तेदारी तेरे बाबूजी कभी पसंद नहीं करेंगे । माना कि धनिया बहुत अच्छी लड़की है ‘ खुबसूरत है’ मेहनती है लेकिन आखिर बिरादरी और समाज भी तो कुछ होता है । नहीं नहीं बेटा ! तू और एक बार सोच ले । ” कहते हुए सुशिलाजी कुछ चिंतित सी नजर आ रही थीं ।

” मैंने सब अच्छी तरह सोच समझ लिया है माँ ! और तय कर लिया है कि शादी करूँगा तो सिर्फ धनिया के साथ वरना नहीं करूँगा । ” अब अमर ने अपने दृढ निश्चय का प्रदर्शन किया । ” क्या समाज और बिरादरी बेटे से ज्यादा जरूरी है माँ ?

” ठीक है बेटा ! मैं तेरी भावना समझ रही हूँ और उसकी कदर भी करती हूँ लेकिन तेरे बाबूजी नहीं मानेंगे बेटा ! ” सुशीला देवी ने आशंका व्यक्त की ।

” अब तुम ही कुछ करो माँ । बाबूजी को तुम ही समझा सकती हो । ” अमर खुशामद भरे स्वर में बोला ।

” ठीक है ! ठीक है ! अब तू जा । तेरे बाबूजी आयेंगे तो मैं समझाने की कोशिश करती हूँ । ” सुशीला देवी को अब अपना काम याद आने लगा था ।

माँ की सकारात्मक बातें सुनकर अमर का हौसला बढ़ गया था । अब उसे ऐसा लग रहा था कि उसके पिताजी लाला धनीराम भी उसकी ख़ुशी के आगे झुक जायेंगे । थोड़ी ही देर में रसोई का काम निबटा कर सुशीला देवी अमर के साथ आकर बैठ गयीं । ऐसा लग रहा था जैसे वह कुछ कहना चाह रही हों । लेकिन बीना कुछ कहे आकर सोफे पर बैठ गयीं और आँखें बंद कर दो मिनट पड़ी रहीं । थोड़ी देर बाद अमर से मुखातिब हुयीं ” बेटा ! तेरे बाबूजी तो पता नहीं कब तक आयेंगे । तू हाथ मुंह धो ले मैं खाना लगा देती हूँ । खाकर अपने कमरे में जाके आराम कर ले । थक गया होगा ।”

” ठीक है माँ ! “कहकर अमर हाथ मुंह धोने चले गया ।

भोजन करके अपने कमरे में लेटा अमर धनिया के ख्यालों में खो गया । वह जितना उसका ख्याल अपने जहन से झटकना चाहता वह उतना ही उसके अंतर्मन में उतरती जाती । वह चाहकर भी उसकी यादों से अपना पीछा नहीं छुड़ा सका । और उसकी यादों में खोये नींद के आगोश में चला गया ।

अमर किसी काम से शहर की तरफ जा रहा था कि मधुर शहनाई का स्वर सुनकर वह ठिठक पड़ा और उस आवाज की तरफ बढ़ा। आगे बढ़ने पर उसे पता चला हरिजन टोले में किसीकी बारात आई हुयी थी । किसी लड़की की शादी थी । वह उसे नजर अंदाज कर के आगे बढ़ने का सोच ही रहा था कि कलुआ ने जो उसी टोले का निवासी था और बाबु हरिजन का पडोसी था अमर को देख लिया । ” अरे ओ बाबु ! देख छोटे मालिक आये हैं ” चिल्लाकर वह दौड़कर उसके नजदीक आया और उससे अपने दरवाजे पर चलने की विनती करने लगा ।

अमर द्वारा व्यस्त होने का बहाना भी उसके निश्चय को न डिगा सका और उसका अनुरोध पूर्ववत जारी रहा । उसकी मधुर और प्रेममय मनुहार का अमर ज्यादा प्रतिकार नहीं कर सका और बाइक से उतर उसके साथ मंडप की और चल दिया। कुछ साड़ियों के टुकड़ों को जोड़कर बांस के खम्बों पर सजा कर विवाह मंडप का रूप दिया गया था। अमर के स्थान ग्रहण करने के बाद कलुआ अमर के लिए कुछ जलपान की व्यवस्था करने की चेष्टा करने लगा ।

शहनाई की मधुर धुन वातावरण में गूंज रही थी । फेरे के लिए पंडित ने दूल्हा और दुल्हन को खड़े होने का आदेश दिया । दुल्हे का चेहरा तो सेहरे के पीछे छिपा हुआ था दुल्हन का चेहरा भी घूँघट की ओट में छिपा हुआ ही था । वर व कन्या दोनों पंडितजी के मंत्रोच्चार के बीच फेरे ले रहे थे कि अचानक हवा के एक तेज झोंके ने दुल्हन के सर से घूँघट को कुछ पल के लिए उड़ा दिया था । घूँघट के हटते ही अमर की नजर दुल्हन के चहरे पर पड़ी और उसकी चीख निकल गयी “धनिया …… ! ”

हाँ वह धनिया ही तो थी ! उसकी धनिया ! वह बेतहाशा उसकी तरफ दौड़ पड़ा । वह अपने सामने ही अपनी धनिया को किसी और की होते नहीं देख सकता था । धनिया की तरफ दौड़ने के जूनून में वह एक आदमी से टकरा कर गिर पड़ा और दर्द की वजह से चीख पड़ा और चीखते ही उसकी नींद खुल गयी थी और वह अपने शयनकक्ष में बेड से नीचे जमीन पर गीरा हुआ पड़ा था ।

उसके कंधे में हल्का दर्द महसूस हो रहा था । शायद वह नींद में ही बिस्तर से नीचे गीर पड़ा था उसे चोट लग गयी थी । उसकी आँखों में आंसू भरे थे । नींद में देखे गए सपने ने उसकी आँखों में आंसू ला दिए थे । जिसे वह सपने में भी नहीं बर्दाश्त कर सका वह हकिकत में कैसे बर्दाश्त कर पायेगा । यह सोचकर ही धनिया को लेकर लिए गए अपने फैसले पर वह और दृढ़ हो गया । चाहे कुछ भी हो जाये उसे इस सपने के हकिकत में बदलने तक का इंतजार नहीं करना है ।

अब उसकी नींद उड़ चुकी थी । एक बार फिर धनिया उसके दिलो दिमाग पर हावी हो गयी थी । धनिया को लेकर भविष्य की योजनायें बनाते बिगाड़ते कब उसकी आँख लग गयी उसे पता भी नहीं चला । सुबह जब अमर की नींद खुली दिन काफी चढ़ गया था । सिरहाने लगी घडी पर नजर पड़ते ही वह उछल पड़ा । घडी सुबह के आठ बहा रही थी और आधे घंटे में ही यानि साढ़े आठ बजे उसे फैक्ट्री का दरवाजा खोलना होता है।

बाबूजी का सख्त आदेश था इस बारे में कि किसी भी सूरत में फैक्ट्री का मुख्य दरवाजा मजदूरों के आने से पहले खुला होना चाहिए। लाला धनीराम का विचार था कि अगर मालिक अपने हिस्से का काम मुस्तैदी से समयानुसार नहीं करेगा तो इससे मजदूरों में गलत सन्देश जायेगा और उनमें लापरवाहियां शुरू हो जाएगी जो किसी भी व्यवसाय की सेहत के लिए नुकसानदेह होता है।

बहरहाल अब अमर को जल्दी से जल्दी फैक्ट्री पहुँचना था। जल्दी जल्दी नित्यकर्म से फारिग होकर दो लोटे ठन्डे जल से स्नान करके अमर बीस मिनट में ही फैक्ट्री जाने के लिए तैयार हो चूका था। अपने कमरे से बाहर आते ही उसकी नजर माँ पर पड़ी जो नाश्ता लिए उसकी तरफ ही आ रही थी । “नहीं माँ ! भूख नहीं है माँ ! ” कह कर बिना रुके अमर बाहर अपनी बाइक के पास पहुँच चुका था । दूर जाती बाइक की आवाज सुशीला देवी को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह बाइक की आवाज न होकर उसके बेटे की आवाज हो जो अब उससे बगावत करके उससे दूर जा रही हो ।

ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे । अमर उठता तैयार होकर फैक्ट्री जाता अपना काम करता और फिर घर पर आकर अपने कमरे में कैद ही जाता । न जाने किस उधेड़बुन में रहता। अमर के अन्दर आये बदलाव से सुशीलादेवी खासी चिंतित थी। लाला धनीराम को अभी तक किसी बात का इल्म नहीं था । सोच रहे थे शायद काम का दबाव होगा । अब उसे अपना काम स्वयं ही संभालना चाहिए इसलिए कभी उसको टोका भी नहीं ।

उधर अमर अपनी जिम्मेदारी बखूबी उठा रहा था । हर काम सही समय पर और तरीके से कर रहा था । उसके मन के अन्दर चल रही उथल पुथल से उसकी माँ सुशीलादेवी के अलावा अन्य सभी अनजान थे ।

इधर धनिया भी इससे अछूती नहीं थी । लेकिन वह तो और मजबूत लड़की थी । उसके चहरे से उसके साथ ही काम कर रही अन्य लड़कियों को उसके दिल में मची हलचल के बारे में तनिक भी अंदाजा नहीं लग पाया । वह नियमित फैक्ट्री आती । अपना काम करती और छुट्टी होने पर हमेशा की तरह अपने घर चली जाती ।

इस बिच न अमर ने और न ही धनिया ने ही एक दुसरे से मिलने की कोशिश की । काम के बीच में ही कभी कभार धनिया कनखियों से अमर को निहार लेती और उसे ऐसा लगता जैसे उसकी डूबती साँसों को थोड़े समय के लिए ऑक्सीजन मिल गया हो। कमोबेश अमर की भी यही हालत थी । गाहे बगाहे अपने ऑफिस की खिड़की से एक झलक धनिया की पाकर वह निहाल हो जाता ।

लाला अमीरचंद की तरफ से भी कोई पैगाम नहीं आया था सो लाला धनीराम भी निश्चिंत थे। अमर की शादी की उन्हें कोई जल्दी भी नहीं थी ।

ऐसे ही दिन बीतते गए । अमर और धनिया की निस्वार्थ मोहब्बत और गहरी होती गयी । अन्य प्रेमियों की तरह दोनों ने साथ जीने मरने की कसमें भले ही न खायीं हो लेकिन मोहब्बत का जज्बा उनमें किसीसे कम भी नहीं था। आँखों के रस्ते ही दिल की तसल्ली करते दोनों युवा प्रेमी अपने अपने रस्ते जीवन का सफ़र तय कर रहे थे । दोनों ही नदी के दोनों किनारे की तरह ही साथ साथ रहते हुए भी एक दुसरे से काफी दूर थे और इशारों ही इशारों में अपनी नित जवां होती मोहब्बत के लिए एक दूजे के प्रति कृतज्ञता भी प्रकट करते । कहते हैं जब लब खामोश हों तो आँखें बात करती हैं ।

अब आगे क्या होनेवाला था यह तो विधि को ही पता था ।

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।