दो वक़्त की रोटी के आगे
सच कहूँ, मुझे कहाँ फुर्सत मैं किसी और के बारे में सोचूँ,
साहब मुझे दो वक़्त की रोटी के आगे कुछ सूझता ही नहीं।
इन हाथों से अपने बड़े बड़े आशियाने तैयार किये हैं मैंने,
पर अपने हालातों पर आंसुओं का सैलाब रुकता ही नहीं।
देखो आप पत्थरों पर सो जाता है बच्चा मेरे खेलते खेलते,
ऐसी नींद आती इन पत्थरों पर भी उठाने से उठता ही नहीं।
महलों की आस नहीं पर ये झोपड़ी ना टपके बरसातों में,
आकर यहाँ हमारे लिए बस इतना सा जतन करता ही नहीं।
ऐशो आराम चाह नहीं पर त्यौहार ख़ुशी से मनाएं हम,
पर हालातों से मुरझाया मन है कि कभी खिलता ही नहीं।
छ्प्पन भोग लगाते हैं पत्थर की मूर्त को ये दुनिया वाले,
पर मेहनत की भट्ठी में तपकर भी पेट ये भरता ही नहीं।
सरकारें बदलती रही यहाँ पर हमारे हालात ऐसे ही बने रहे,
जो सुनवाई करे हम जैसों की ऐसा कोई नेता बनता ही नहीं।
गरीबी को अपना मुकद्दर समझ कर समझौता कर लिया,
अरमानों को दबाना सीख लिया अब दिल जलता ही नहीं।
हालात सब जानते हैं हमारे पर कोई आवाज उठाता नहीं,
लिख देती है सुलक्षणा हाल वरना कोई लिखता ही नहीं।
©® डॉ सुलक्षणा अहलावत