लघुकथा : दरकते रिश्ते
शरीर कई दिन से टाइफाइड से निढाल था। तेज ज्वर से तपती मैं पति के आने का इंतज़ार कर रही थी ।रात के एक बज चुका था पर उनका पता न था। फोन किया पर फोन उठा नहीं तो अनहोनी की आशंका से घबराहट होने लगी, एक-2 पल भारी गुज़र रहा था।
लम्बे इंतज़ार के बाद दरवाजे पर दस्तक हुई , मानव को नशे में धुत देखकर मेरी परेशानी और बढ़ गई ।मुझसे रहा न गया तो बोली,” क्या मानव , तुम जानते हो न मेरी तबियत ठीक नहीं है और तेज बुखार भी है, तुम्हें ये सब नहीं करना…….”।मेरा बस बोलना था कि मानव के अंदर का मानव फूट पडा,” प्रीती तुमने क्या मुझे नौकर समझा है ,जो तुम्हारी सेवा करता रहूँगा, मेरी भी अपनी जिंदगी हैं, पहले मालूम होता कि तुम बीमार रहती हो तो शादी ही नहीं करता, तुमसे शादी करके जिदंगी नरक बन गई हैं। मुझे बख्श दो और चली जाओ”।
ये सब सुनकर आहत मन क्रंदन कर उठा, पर आवाज हलक में ही घुट के रह गई। आखों से बरसात होने लगी और मात्र दो महीने पूर्व हुई शादी में आई दरार साफ नजर आने लगी और बिस्तर पर मैं परकटे पंक्षी की तरह निढाल हो गिर गई।
— संयोगिता शर्मा