उपन्यास अंश

नई चेतना भाग-७

अमर पसीने से लथपथ हो चुका था । उसके कदम अब डगमगा रहे थे । हिम्मत जवाब दे रही थी । हरिया के जाने के बाद वह तुरंत ही उठ कर चल पड़ा । वह जल्द से जल्द नारायण की झुग्गी तक पहुँच जाना चाहता था । शायद वहां उसे धनिया के बारे में कुछ पता चल जाये । इसी उम्मीद में अपनी धुन का पक्का अमर लगातार चलता रहा । दिनभर की अपनी यात्रा पूरी करके सूर्य भी अपने अस्ताचल की ओर गतिमान थे। अब वह किसी भी समय अपनी मंजिल पर पहुँच जानेवाले थे । लेकिन अमर की मंजिल कहाँ थी ?

शहर की कुछ ऊँची इमारतें दिखनी शुरू हो गयी थीं । पश्चिम में सूर्य की किरणें अस्त हो चुकी थीं । शाम का धुंधलका फ़ैलनेे लगा था । अमर शहर की सीमा पर पहुँच कर बिलकुल बेदम सा हो गया था । चुंगी चौकी के नजदीक ही स्थित ढाबे पर एक ख़ाली खटिया देखकर उसी पर पसर गया ।

बेयरे के आने पर उसे चाय के लिए कहकर वह फिर से निढाल हो गया । थकान के मारे उसकी बुरी गत थी । पैर के तलवों में जलन सी हो रही थी । थोड़ी देर वह यूँ ही पड़ा रहा । बेयरे ने चाय लाकर उसे आवाज दी । उसे नागवार तो गुजरा अपने आराम में खलल डालना लेकिन क्या कर सकता था ? ढाबे में खटिये पर बैठ कर आराम यूँ ही तो नहीं कर सकता था । कुछ न कुछ मंगाना जरुरी था सो अमर ने चाय मंगा ली। बेयरा चाय रख कर जा चुका था । चाय को हाथ लगाने से पहले अमर ने अपनी जेब टटोली । कुछ पैसे जो हमेशा जेबखर्च के रूप में उसके पास होते थे उन्हें अपनी जेब में महसूस कर अमर ने राहत की सांस ली।

चाय पीकर और थोडा आराम करके अमर खुद को तरोताजा महसूस कर रहा था । उसकी नजरें अब सड़क पर किसी वाहन का तलाश कर रही थीं । शहर के दुसरे छोर तक पैदल जाने की हिम्मत और उर्जा अब उसके पास शेष नहीं बची थी ।

एक रिक्शेवाला अमर को ‘विश्राम मिल’ तक ले जाने के लिए तैयार हो गया  । रिक्शे में बैठे अमर के मन में कई तरह की आशंकाएं घर कर रही थीं । अगर धनिया वहाँ न मिली तो ? थोड़ी ही देर में अमर ‘ विश्राम मिल ‘ के सामने था । रिक्शेवाले को किराया दे कर अमर ने उसे वापस भेज दिया ।

अमर पैदल ही मिल के एक तरफ दिख रही झुग्गी बस्ती की ओर बढ़ गया । जहां मिल के सामने लगे खम्बों पर बिजली के बल्ब रोशन हो गए थे  । यहाँ इस हिस्से में सड़क पर अँधेरे का साम्राज्य फैला हुआ था ।

समय सात से कुछ ही अधिक हो रहा था लेकिन नवम्बर का महिना होने की वजह से सूर्यास्त जल्दी हो गया था और मिल से हटकर आगे जानेवाली सड़क पर अँधेरा काबिज हो चुका था । सड़क पर गन्दगी के ढेर पड़े हुए थे । बदबू भी अँधेरे से आगे बढ़ने की होड़ लगा रहा था ।

चारों तरफ फैले कूड़े के ढेर की सड़ांध ने अमर के नथुने को बदबू से सडा दिया था । मुंह पर रुमाल रखे अमर सामने ही सड़क से हटकर थोड़ी दूर दिख रही झुग्गियों की तरफ बढ़ रहा था । एक छोटी कच्ची सड़क मुख्य सड़क से नीकल कर झुग्गियों की तरफ गयी थी । उसी सड़क पर अमर बढ़ा जा रहा था । बस्ती बेतरतीब बनी हुयी थी ।

झोंपड़ों के आगे बहते गंदे पानी के बीच से खुद को बचाते अमर ने बस्ती में ही एक दुकानदार से नारायण हरिजन के बारे में पुछा । उसी दुकान के बाद पांचवीं झुग्गी नारायण की थी । झुग्गी के सामने पहुंचते हुए अमर का दिल जोर जोर से धड़क रहा था । मष्तिष्क में विचारों के अंधड़ चल रहे थे । धनिया मीलेगी तो वह उसका सामना कैसे कर पायेगा ? क्या कहेगा उससे ? अब तक जिससे ढंग से बात भी नहीं की उसे अपने मन की व्यथा कैसे समझाएगा ? और अगर धनिया यहाँ नहीं मिली तो ?

मन में उठे विचारों को झटकते हुए अमर ने झुग्गी के तख्ते नुमा दरवाजे पर दस्तक दी । दरवाजा एक अधेड़ शख्स ने खोला था । गन्दी सी बनियान और उसके नीचे तहमद कसी हुयी थी । अमर को घूरते हुए तेज कर्कश आवाज में नारायण बोला “कहो ! कौन हो और किससे मिलना है ? ”

“बाबू काका हैं ? ” अमर ने बीना एक पल गंवाए तपाक से पूछ लिया था। नारायण का कठोर चेहरा थोडा बदला हुआ सा लगा । आवाज में थोड़ी नरमी लाते हुए बोला ” बाबू काका ? लेकिन आप क्यों पुछ रहे हो ? ”

अमर का धैर्य अब जवाब दे रहा था । “अरे भाई ! उनकी तबियत ख़राब चल रही है । गाँव में नहीं थे तो सोचा आपसे पता करते चलूँ।” अमर ने सच बात पर बड़ी खूबसूरती से पर्दा डाल दिया था ।

दरवाजे से परे हटते हुए नारायण ने उसे अन्दर आने का संकेत किया । यह एक छोटा सा अधकच्चा कमरा था । कमरे में एक तरफ एक छोटी सी चारपाई बिछी हुयी थी । उसी चारपाई पर एक मैली सी चादर डालकर नारायण ने उसे बैठने का संकेत किया । कमरे में धनिया और बाबु को न देखकर अमर का कलेजा जोरों से धड़कने लगा था लेकिन खुद पर बड़ी मजबूती से काबू रखते हुए अमर ने अपने हाव भाव से अपने मन की व्यथा को उजागर नहीं होने दिया । कमरे में पहुंचकर अमर चारपाई पर ही बैठ गया । उसकी नजरें कमरे का मुआयना कर रही थीं जैसे उसे किसी चीज की तलाश हो ।

कमरे में व्याप्त गन्दगी देखकर उसे उबकाई सी आ रही थी लेकिन शांत और संयत स्वर में अमर ने पुनः अपना प्रश्न दुहराया । नारायण चारपाई के ही सामने रखे एक पुराने टिन के कनस्तर पर बैठते हुए बड़े ध्यान से अमर की तरफ देखते हुए गंभीर स्वर में बोला “आप अमर बाबू हो न ? ”

अमर ने सहमति में सर हिलाया । नारायण ने आगे कहना शुरू किया ” बाबू मेरा रिश्ते का भाई है । आज वह और उसकी बेटी धनिया भोर में ही यहाँ पर आ गए थे । बाबू कुछ परेशान सा लग रहा था । घबराया हुआ भी लग रहा था । तबियत ख़राब होने के बावजूद आज ही धनिया की शादी कराने के लिए कोई लड़का बताने की जिद्द करने लगा। सरजू मुझे धनिया के लायक तो किसी भी तरह से नहीं लगता था लेकिन बाबू के बहुत जिद्द करने पर मैंने तुरंत ही सरजू को बुला लिया था । कल ही सरजू और धनिया की शादी है । ”

नारायण के मुख से निकले अंतिम वाक्य ने अमर के दिल पर वज्राघात कर दिया था । बुरी तरह से बेचैन और परेशान अमर अब अपने आप पर काबू नहीं रख सका । हताश ,निराश हो चुके अमर ने नारायण से पुछ ही लिया ” लेकिन अब इस समय बाबू काका और धनिया कहाँ हैं ? ”

नारायण भी अमर की अवस्था को महसूस कर रहा था “अमर बाबू ! किसी भी तरह से धनिया को बचा लो अमर बाबू ! सरजू अच्छा लड़का नहीं है । मैं बताना नहीं चाहता था लेकिन यह सोच कर बता दिया था की बाबू और धनिया उसे देखते ही नकार देंगे लेकिन बाबू ने तो उसे देखते ही पसंद कर लिया था । मैं बाबू को सरजू से मिलवाकर बहुत पछतावा महसूस कर रहा हूँ ।अब आपका ही सहारा है अमर बाबू ! धनिया को बचा लो अमर बाबू ! ” कहते कहते रुआंसा नारायण अमर के पैरों पर गिर पड़ा था । वह अपने आपको धनिया का दोषी मान रहा था ।

अमर बड़ी मुश्किल से अपने जज्बात पर काबू रखे हुए था । अपने आपको संभालते हुए अमर बोला ” लेकिन बाबू काका तो बीमार थे । उन्होंने इतनी जल्दी शादी के लिये हामी कैसे भर दी ? ”

नारायण ने जवाब दिया ” सरजू को देखने के बाद धनिया ने इनकार कर दिया था लेकिन यह आश्वासन मिलने के बाद कि सरजू आजीवन बाबू की देखभाल करेगा धनिया सरजू से शादी करने के लिए तैयार हो गयी थी । बात तय होते ही सरजू धनिया और बाबू के साथ अपने गाँव के लिए रवाना हो गया था । अब तक तो वह अपने गाँव के करीब पहुँच रहा होगा । ”

नारायण के जवाब से अमर की तड़प और बढ़ती जा रही थी । नाउम्मीद हो चुके अमर ने अंतिम प्रयास के रूप में नारायण से फिर पूछा ” लेकिन आपने बताया नहीं कि सरजू बाबू  काका और धनिया को लेकर कहाँ गया है ? किस गाँव का रहनेवाला है सरजू ? ”

” यह सब ठिकठिक तो मुझे भी नहीं मालूम कि वह कहाँ का रहनेवाला है । शायद नजदीक ही किसी शहर के नजदीक रहनेवाला है क्योंकि एक बार मुझसे बातों बातों में उसने अपने गाँव का जिक्र करते हुए बताया था कि उसका गाँव यहाँ से छह घंटे की दुरी पर है । नाम मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है । ” नारायण ने बेबसी जाहिर की थी ।

अमर ने फिर भी प्रयास जारी रखा ” तो अब सरजू के गाँव का पता लगाने का कोई जरिया नहीं है ? ”

” है अमर बाबू !  जरिया है , और इसमें हम आपकी पूरी मदद भी करेंगे । मिल का मेनेजर बहुत भला आदमी है और हमको बहुत मानता भी है। सरजू इसी मिल में चपरासी का काम करता है । उसका पूरा विवरण मिल के रिकॉर्ड में दर्ज होगा । मेनेजर साहब से पुछने पर वो अवश्य हमारी मदद करने के लिए हमें सरजू का पता बता देंगे। ” नारायण की बात सुनकर अमर को कुछ उम्मीद की किरण नजर आई।

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।