पहाड़ों के ढलानों पर
बनाये नीड़ हैं हमने, पहाड़ों के मचानों पर
उगाते फसल अपनी हम, पहाड़ों के ढलानों पर
मशीनों से नहीं हम हाथ से रोज़ी कमाते हैं
नहीं हम बेचते गल्ला, लुटेरों को दुकानों पर
बशर करते हैं अपनी ज़िन्दग़ी, दिन-रात श्रम करके
वतन के वास्ते हम जूझते, दुर्गम ठिकानों पर
हमारे दिल के टुकड़े, होटलों में माँजते बर्तन
बने दरबान कुछ लड़के, सियासत के मुकामों पर
पहाड़ी “रूप” की अपने, यही असली कहानी है
हमारी तो नहीं गिनती, चमन के पायदानों पर
— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’