गज़ल
अपनी हस्ती पे क्यों लोग अकड़ जाते हैं,
ज़रा से झोंके से पत्ते यहां झड़ जाते हैं
जो झुकते हैं वो बच जाते हैं तूफानों से,
जो सरकशीदा हों वो पेड़ उखड़ जाते हैं
हुस्न वालों की दुनिया का है अजीब चलन,
बना के अपना फिर ये तनहा छोड़ जाते हैं
दिल हो किसी गरीब का या राजमहल,
नहीं बसते जो एक बार उजड़ जाते हैं
रफ्तार ही नहीं काफी है जानिब-ए-मंज़िल,
कभी खरगोश भी कछुओं से पिछड़ जाते हैं
— भरत मल्होत्रा