कण कण में व्याप्त
हूँ मैं कण- कण में व्याप्त ,
पर है मुझे बहुत संताप ।
मैं हूँ देवनागरी हिन्दी,
माँ भारती के माथे की बिंदी।
है नहीं रिश्ता जुबां का मेरा,
करती मैं तो दिल में बसेरा ।
मंदिर,मस्जिद सी पवित्र,
होते सभी मुझसे गर्वित ।
रखती सब भाषाओं को जोड़,
है नहीं किसी से मेरा तोड़ ।
नहीं किसी से मेरी अनबन,
महकाती भारत का हर कण ।
हूँ मैं सब बहनों में बड़ी,
बिन मेरे काम में अड़चन पड़ी ।
मैं हर भाषा के संगीत का प्राण,
है मुझसे ही भारत की शान।
— निशा गुप्ता, तिनसुकिया, असम