गीत – मैं ही हूँ तेरे हृदय में
मैं ही हूँ तेरे हृदय में,
मैं ही विस्तारित निशा की,
धवल, नीरव चाँदनी में,
मैं ही आलोकित हुआ हूँ,
क्षितिज पे चमकी दामिनी में
काल की मंथर गति में,
मैं ही कम्पित हो रहा हूँ,
सृष्टि के हर एक कण में,
मैं ही बिम्बित हो रहा हूँ,
मैं ही सम्मिलित तुम्हारी,
हर पराजय में, विजय में,
मैं ही हूँ तेरे हृदय में,
दृष्टिगोचर हो रहा हूँ,
मैं रवि में, सोम में भी,
मेरे ही पदचिन्ह फैले,
धरा में भी, व्योम में भी,
पुष्प सा कोमल भी हूँ मैं,
पाषाण सम मैं ही कठोर,
कभी तर्कोन्मुख हुआ मैं,
और कभी आत्मविभोर,
पान कर अमरत्व रस का,
हूँ अकम्पित हर प्रलय में,
मैं ही हूँ तेरे हृदय में,
जलधि की गहराई मैं ही,
मैं हिमालय का कपाल,
अणु भी, ब्रह्मांड भी हूँ,
सूक्ष्म मैं, मैं ही विशाल,
मेरा ही गुणगान करती,
वेद की सारी ॠचाएँ,
युग-युगान्तर से कविवर,
गीत मेरे ही सुनाएँ,
रागिनी गुञ्जित हुई है,
मेरे स्वर की उर्ध्व लय में,
मैं ही हूँ तेरे हृदय में,
— भरत मल्होत्रा