गज़ल
हमसे आँसू ना बहाने को कहा जाता है
गम ज़माने से छुपाने को कहा जाता है
गिरेबां चाक है, छलनी है जिगर अपना मगर
महफिल में मुस्कुराने को कहा जाता है
हाथ जब सेंकना चाहती है सियासत अपने
घर गरीबों का जलाने को कहा जाता है
दरख्त काट कर बंगले बना लिए पहले
अब हमें पेड़ लगाने को कहा जाता है
हमने जिनको सिखाया था जीना उनको अब
हमें ही जहर पिलाने को कहा जाता है
यहां हर रोज़ नया साथी ढूँढते हैं लोग
अब किसे लौट के आने को कहा जाता है
— भरत मल्होत्रा