ज़िंदगी की किताब
एक किताब जिसके पन्ने पुराने हो गए,
क्या उसके शब्दों का कोई अर्थ न रहा।
ज़िंदगी तो सदियों से चली आ रही है,
इसका तो कोई पन्ना व्यर्थ न रहा।
इस ज़र्द किताब के हर पन्ने को उलट कर देखते हैं
आओ मेरे यार, ज़िंदगी को फिर से पलट कर देखते है।
एक मुस्कान जो भीड़ में खोई हैं,
गम से शिकस्त खा हंसी भी रोई है।
इतनी नमी क्यों है ज़िंदगी के पन्नों पर
दुखों के बादलों ने ये किताब भिगोई हैं।
एक दूजे के अश्कों को थोड़ा ठहर कर देखते हैं,
आओ मेरे यार, आँखों का रंग बदल कर देखते हैं।
गलतफहमियों की धुंध छा रही है,
गफलत रिश्तों पर कहर ढा रही है,
गुलाब की रंगत फीकी लगने लगी है,
नफ़रत की आतिश सुलगने लगी है।
इस गुलशन को तितलियों के परों पर बैठ उड़ कर देखते हैं,
आओ मेरे यार, चमन-ए-ज़िंदगी को फिर से मुड़ कर देखते हैं।