कविता

हे चाँद बताओ !

हे चाँद बताओ कभी कभी ‘ क्यूँ देर से आते हो
देर से आकर भी क्यूँ ‘ बादल में छिप जाते हो

रिश्ता क्या धरती संग है ‘ क्यूँ तुम मुस्काते हो
अँधेरा हो जब जग में ‘ रोशन कर जाते हो

सुनकर के यह बात चाँद ने ‘ अपना है मुंह खोला
बादल के झुरमुट से निकला ‘ मुस्का कर यूँ बोला

” धरती है सबकी मैया ‘ हूँ मैं उसका मुंहबोला भाई
स्नेह प्रेम से बंधा घुमता ‘ जगभर राखी बांध कलाई

संकट में जब हो बहना ‘मैं तब तब ही आता हूँ
इसीलिए तुम सब का बच्चों ‘ मैं मामा कहलाता हूँ !”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।