संस्मरण

परिवार मे चूल्हा बंटता है ,पर्व नहीं

करीब 27 -28 साल पुरानी सीख है जो मैंने अपने पिता को दी थी. वे अवकाश प्राप्त कर नौकरी के क्वाटर को छोड़कर घर जा रहे थे. संजोग से मैं उस समय वहाँ थी. घर पहुंचते रात हो जाने वाली थी मैं भाभी को बोली “सबके लिए यही से खाना बनाकर ले चलते हैं मेरी बात खाना वाली सुनते मेरे पिता दुखित हो गए घर पर उनसे बहुत बड़े भाई, भाई=पिता समान यानि मेरे बड़े बाबू जी और बड़ी अम्मा रहते थे जो खुद वृद्ध थे. उनके बच्चे बाहर रहते थे. वे लोग जिद से घर रहते थे कि गांव का वातावरण भोजन उन्हें स्वस्थ्य रखता है और मन लगता है.  सच में आज भी जो अपनापन गांवों में बुजुर्गों को मिलता है. वो शहरी परिवेश नहीं दे सकता है. गप्पबाज़ी सेहत के लिए ज्यादा जरूरी

मेरे पिता को लगा कि आज भोजन लेकर चलेंगे तो बड़े भाई से अलग हो जाना होगा. जिसकी शुरुआत उनके कारण होगी. लेकिन मेरी सोच कह रही थी कि पापा का पूरा परिवार उनके संग रहेगा क्यों कि मेरी माँ नहीं थी तो जब तक मेरे पापा जीवित रहे कोई न कोई भाभी उनके साथ रही तब दो दो भाभियाँ रहती थी. उनके बच्चे थे. सबका अपना अपना स्वाद था. अपनी अपनी आजादी थी. मैं एक ही बात बोली “आज आप चूल्हा अलग करते हैं तो बड़े बाबूजी के दिल से कभी अलग नहीं होंगे”.  उनको आप अपने साथ रखियेगा दो चौका रहेगा तो परेशानी किसी को नहीं होगी. नहीं तो किच किच स्वाभाविक है और दरारे पड़ने के बाद अलग होने से दीवारें खड़ी होती है. और आज भी हम सब अपने चचेरे भाई बहन कोई पर्व हो शादी ब्याह हो एक चूल्हा जलता है

मेरी भाभियों पर मेरे पापा के संग बड़े बाबूजी और बड़ी अम्मा लादे गए बोझ नहीं थे लेकिन एक आँगन में होने से इंसानियत ज्यादा दिखाई सबका बराबर ख्याल रखा गया क्यों कि केवल सुपरविजन करना था “बांधे रखना चाहते हो कुनबे को तो सबको मुक्त कर दो ”
पिजड़े से फरार पक्षी, पिंजड़े में नहीं लौटता है. साख से उड़ा पक्षी, बसेरा साख को ही बनाता है.

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ