हास्य-व्यंग्य : लक्ष्मी, तुम जाओ ना!
भारत, एक गरीब देश है। लक्ष्मीपतियों का गरीब देश! भक्तगण यहाँ साल भर लक्ष्मी जी की पूजा सबसे अधिक करते हैं। पर लक्ष्मी बेवफा है। वह सिर्फ एक रात के ही लिए भारत-भ्रमण भारतीय भक्तों पर कृपा करने के मूढ़ में होती हैं। वह भी आठ-दस घंटे। शेष तीर सौ चौसठ ‘दिन-रात’ वे यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अरब देशों के दौरे पर होती हैं। इसलिए ये देश अमीर हैं, जबकि वहाँ उनके भक्त नहीं है। अब समझ आया भारत के गरीब होने का राज़? भला इतने कम समय में कोई धनवान बन सकता है? मुझे लक्ष्मी का यह पक्षपात पसंद नहीं। यह तो वही बात हो गई साहब कि ‘मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाए फकीर!!’ मज़ेदार बात देखिए ना वे भारत दौर करती भी हैं तो उल्लू पर। ‘उल्लू’ दिन के उजाले में काम नहीं करते। लक्ष्मी को फँसाने के लिए भक्त दिन के उजाले में घर चमकाते और सँवारते हैं। लक्ष्मी उनके घर तक नहीं पहुँच पाती। कारण? यह उल्लू। वह तो उन्हें वहीं लेकर जाता है जहाँ अंधेरे या रात में होनेवाले काम होते हैं।
लक्ष्मी का सौंदर्यबोध भी ठीक नहीं है। सवारी ढूँढ़़ी भी तो उल्लू! आसन ढूँढ़ा तो कमल!! जो हमेशा कीचड़ में रहता है। उन्हें साफ-सफाई से कोई मतलब नहीं। प्रधानमंत्री महोदय ज़माने भर की योजनायें –‘स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और ना जाने क्या-क्या’- लाकर विदेशी धन भारत में लाने को कमर कसे बैठे हैं। पर लक्ष्मी है कि विदेशों में रमी बैठी हैं। ‘स्वच्छ-भारत अभियान’ के बाद भी भारत में धन वर्षा नहीं होने का यही कारण है- लक्ष्मी की सफाई के प्रति बेरुखी। दीपावली की हर रात मैं चौराहे पर स्थित अपने घर की बालकनी से लक्ष्मी के आने की बाट जोहता रहता हूँ- लक्ष्मी! यहाँ आओ ना!! पर वे नहीं आतीं। उल्लू पर जो सवार रहती हैं। उल्लुओं को हिन्दी पसंद नहीं होती। होता यह है कि नाम के सामने डॉक्टर सुनकर उल्लू आकर्षित होता है। मोहल्ले में सड़क के किनारे सोए शराबियों और भिखारियों से मेरा पता पूछता है। लक्ष्मी को लादकर दरवाज़े तक भी आता है। लेकिन घर के दरवाजे़ पर देवनागरी में लिखा मेरा नाम- डॉ॰ शरद सुनेरी-देखकर बिदक जाता है। उसकी आशाओं पर पानी फिर जाता है। ‘हूँऽऽह, डॉक्टर और वही भी हिन्दी का शिक्षक! छीऽऽ!!’ वह फौरन अपनी दिशा बदलकर बाजूवाले गुप्ता जी के घर चला जाता है लक्ष्मी को लेकर। उनके नाम की तख्ती अंग्रेज़ी में जो है और ऊपर से यह भी लिखा है -‘पुलिस निरीक्षक’। मैं अपनी अटरिया पर से चुपचाप लक्ष्मी को तकता रह जाता हूँ, टुकुर-टुकुर। और अंत में पुकारता रह जाता हूँ- लक्ष्मी! इधर आओ ना!!
मेरी समझ में एक बात नहीं आती, ये लक्ष्मी हमारे देश में आधी रात का उल्लू पर ही सवार होकर क्यों आती है? हाथी भी तो पाल रखा है। उस पर भी तो आ सकती थीं – दिन-दहाड़े। काफी सोचने पर उत्तर मिला। महँगाई के कारण जिस देश में दो वक्त रोटी की जुगत करना भारी पड़ता हो वहाँ ‘गजगामिनी’ बनने में कौन-सी समझदारी है? भक्तगण प्रसाद भी चढ़ातें हैं तो लाई-बताशों का। क्या हाथी को खिलाएगी और क्या खुद खाएगी? भारत जैसे गरीब देश में हाथी का मेंटनेंस संभव नहीं। यहाँ ‘गजगामिनी’ से भली ‘उलकवाहिनी’ ही ठीक है। बेचारा उल्लू, रात में कहीं भी चूहा, छिपकली, कीड़े-मकोड़े खाकर गुज़ारा कर लेता है। खंडहरों में छिपकर दिन व्यतीत कर लेता है। गरीबों के घर जाने में बहुत टेक्निकल प्रोबलेम होती है। बहुत सोचना पड़ता है, लक्ष्मी को। हाथी, बुद्धिमान प्राणी है। उल्लू, ‘उल्लू’ है। लक्ष्मी, उल्लू का साथ करती है। संगत का प्रभाव सब पर पड़ता है। लक्ष्मी पर भी पड़ता है। उल्लू की संगत लक्ष्मी को भी बिगाड़ देती है। कभी-कभी, लक्ष्मी की संगत इंसानों को भी उल्लू बना देती है। उल्लू, लक्ष्मी को उल्लू बनाते रहता है। समझदार उल्लुओं ने लक्ष्मी को फाँसकर उसका मुँह काला कर दिया और सात समंदर पार विदेशी बैंकों में कैद कर रखा है। बुद्धिमान गजराज के साथ रहे तो हम जैसे पढ़े-लिखों के भी यहाँ आना हो। क्या करें? उल्लू का साथ कर रखा है माता जी ने!!
ये गजराज भी कुछ अच्छा नहीं करतें। बेचारे भक्तगण दो महीना पहले ही नगर के घर,गली, चौराहों पर स्थापित कर खूब लड्डू-मोदक से दस दिनों तक खातिरदारी करते है- “जय गणेश देवा।“ पर ये हैं कि महाराज ऐन वक्त पर सब गुड़-गोबर कर देते हैं, उल्लू को चार्ज देकर। इनकी नादानी में मेरा नुकसान हो जाता है। उल्लू, गुप्ता जी के घर लक्ष्मी को लेकर घुस जाता है और मैं अटरिया पर से पुकारता रह जाता हूँ-‘लक्ष्मी! यहाँ भी आओ ना!!’ कुछ समय पहले यह सुनकर कि लक्ष्मी ‘काली’ हो गई मैं बड़ा खुश हो गया था कि चलो अब अपनी बिरादरी में आई। पर जल्द ही वह खुशी निराशा में बदल गई। ‘काली लक्ष्मी’ मेरी बिरादरी में आकर भी विदेश चली जो गई थी। फिर भी सड़क पर चलती हर ‘श्यामा-सुंदरी’ मुझे लक्ष्मी का अवतार लगतीं। मैं उन्हें ही घूरता। आँखें लड़ाता। मौका मिलते ही आँखें मिलाने की कोशिश भी करता। एक बार आँख मारकर बुलाने की कोशिश की, कि-‘लक्ष्मी! यहाँ आओ ना।’ तो पिटते-पिटते भी बचा। बाबाजी के चक्कर में पड़कर योग प्राणायाम करने लगा कि बाबाजी का साथ ही काली लक्ष्मी दिला देगी। पर मिला बाबाजी का ठुल्लू। ‘काली लक्ष्मी’ तो क्या अब तक हर महीने मिलनेवाली ‘गोरी लक्ष्मी’ के भी दर्शन भी अब तक नहीं हुए हैं।
उस दिन मैंने देखा कि ट्रैफिक हवलदार बड़ी मुस्तैदी से वाहन चालकों को नियम का उल्लंघन करने पर पकड़ रहा था। जहाँ किसी ने नियम तोड़ा लक्ष्मी जी के ये उल्लू झट उन्हें दबोच लेते। हवलदार के काँधे पर सवार हो जाती। नियम भंग करने पर जो काम सरकार को हज़ारों रूपये का हर्ज़ाना देकर करना होता ये उल्लू लक्ष्मी की कृपा से उसे सैकड़ों में निपटा देते। दीपावली की वसूल हो रही थी। न हींग लगती न फिटकरी, और रंग भी एकदम चकाचक। उधर लक्ष्मी को भी अपनी संतानों का यह भाई-चारा पसंद आ रहा था। मिलजुल कर जो समस्या का समाधान कर लेते हैं- ‘चोर-चोर मौसेरे भाई!!’
मेरे घर के पीछे झोपड़पट्टी का क्षेत्र है। इनका लक्ष्मी से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं। दिनभर मज़दूरी-मेहनत करते हैं और रात को थककर, शराब पीकर तथा आधा पेट खाना खाकर वहीं फुटपाथ पर पेपर बिछाकर सो जाते हैं। कभी नींद की गोली नहीं खाते। उस रात मैंने लक्ष्मी को शराब के नशे में धुत एक खूबसूरत नौजवान, ‘उल्लू’ की कार पर पिछली सीट पर सवार, इस झोपड़पट्टी की ओर आता देखा। उन्हें ओवरटाइम करता देख अच्छा लगा क्योंकि वह रात दीपावली की नहीं थी। अचानक कुत्ते जो़र-ज़ोर से रोने लगे आसमान की ओर देखकर। पीपल के झाड़ पर उल्लुओं ने कतार लगा रखी थी। न जाने लक्ष्मी को क्या सूझा वह अचानक उचक कर उस जवान की खोपड़ी पर सवार हो गई। शराब का नशा! लक्ष्मी की संगत!! लक्ष्मी की संगत अच्छे-अच्छों को बिगाड़ देती है। दोनों ने ड्राइवर बने उल्लू के आँखों पर परदा डाल दिया। और लक्ष्मी जी का वह उल्लू सड़क किनारे सो रहे चार-पाँच गरीबों का रौंदता हुआ लक्ष्मी को लेकर भाग गया। मैं फिर चिल्लाता ही रह गया-“लक्ष्मी! रूक जाओ ना। हे लक्ष्मी! जाओ नाऽऽ!!“
— शरद सुनेरी