कविता
आज फिर भंगार वाला,
गली से गुज़र रहा था,
रोज़ की तरह,
आवाज़ देते हुए,
कुछ टूटा फूटा सामान,
भंगार में देना है क्या?
दिल में आया,
कि एक बार पूछूँ,
कुछ टूटे सपने हैं,
कुछ अधूरी इच्छाएँ हैं,
वर्षो से मन के किसी कोने में,
यूँ ही पड़ी हुई हैं,
जिंदगी की भागदौड़ में,
अब ना समय बचा है,
ना हिम्मत,
जो इनकी मरम्मत करके,
इन्हें पूरा कर सकूँ,
क्या इसके बदले में,
कुछ दे सकता है भाई?
फिर सोचा,
कि ये भी ना होंगे पास,
तो बाकी क्या रह जाएगा,
मासूमियत चढ़ गई समय की भेंट,
ईमानदारी हालातों की,
बचपन खा गई नादानी मेरी,
जोश ले गया जवानी मेरी,
और उसे गिरवी रख दिया
जिम्मेदारियों के पास,
जब अनुभव के सिक्के,
कमा कर छुड़ाने गया,
तो वक्त की तिजोरी में पड़े-पड़े,
मुरझा सी गई थी,
चेहरे पर झुर्रियां,
बालों में सफेदी,
सारी उम्र की कमाई लुटा कर,
हाथ आया भी तो क्या?
बुझी हुई सी नज़र,
और झुकी हुई सी कमर,
रहने दे भाई भंगार वाले,
ये टूटा सामान भी,
बेच दिया अगर तुझको,
तो क्या रह जाएगा हाथ मेरे,
उस पुराने मकान सी हालत होगी,
जिसकी छत गिर जाने पर,
उसमें रहने वाले,
कहीं और आशियाना बना लेते हैं,
अभी टूटी हुई सी सही,
सपनों की छत तो है,
आधी अधूरी ही सही,
ख्वाहिशों की दीवारें तो हैं,
टपकता रहता है जिनमें से,
मेरी आँखों का खारा पानी,
और ये एहसास दिलाता है,
कि अभी जिंदा हूँ मैं,
कुछ मर गया है मेरे अंदर मगर,
अभी भी जिंदा हूँ मैं,
— भरत मल्होत्रा