सबिया (कहानी)
सबिया कितनी बदल गई थी. मुझे स्पस्ट याद हैं मैं पुरे पांच साल बाद गाँव लौटी हूँ. गाँव का स्वच्छ वातावरण अब काफी बदर चूका था. सबिया जिसे मैं सोबू कहा करती थी, काफी दुबली हो गयी थी. दो बच्चों की माँ सोबू कुछ बदल भी गयी थी. पहले की तरह न वह बात करती और न मुस्कुराती.
उसे देख ऐसा महसूस होता था जैसे वह किसी गहरी चिंता में डूबी हुई हो. ‘सबिया कैसी हो ?’घर आने के बाद पहली बार मैंने उससे यही पुछा था. ‘ठीक हूँ दीदी. ‘ उसकी अव्वाज में कोई उत्सुकता नहीं थी. उसके इस व्यवहार में मैं आश्चर्यचकित रह गई. मेरी उपस्थिति में जो बहुत खुश हुआ करती थी. आज उसे मेरे आने पर कोई ख़ुशी नहीं हुई. यह तो मुझे पता था की वह आजकल ससुराल में रहती हैं. हमारे घर को छोड़े उसे तीन साल हो गए थे. माँ ने पत्र में लिखा था.
सबिया जब ब्याह कर आई थी तब वह बहुत छोटी थी. उसका पति हैदर उसे बहुत प्यार करता था. खुद दिन भर ठेला चलाता. शाम को घर लौटता तो सजी संवरी सबिया उसका स्वागत करती. उसके दर्शन मात्र से हैदर अपनी सारी थकन को भूल जाता. दोनों बहुत खुश थे. सबिया ब्याह के बाद ससुराल के बजाय हमारे दिए हुए मकान में रहा करती थी. शायद हैदर की माँ को सबिया पसंद नहीं थी. हमने कभी भी हेय दृष्टि से उसे देखा हो याद नहीं आता. दोनों की हंसी-ख़ुशी जिन्दगी में एक गुडिया-सी बिटिया आसमा भी आ गयी थी. दोनों बहुत खुश थे. हैदर खूब म्हणत करने लगा. बिटिया के आने की ख़ुशी में हैदर ने एक छोटा सा जश्न भी मनाया था. धीरे-धीरे उसने अपना निजी ठेला भी बनवा लिया. बेटी से बहुत लगाव था हैदर को. सबिया की हरी-भरी जिंदगी में तब चार चाँद लग गया था जब नन्हे आमिर ने पदार्पण किया.
उन दोनों की खुशहाली जिंदगी को देखकर कोई भी ईर्ष्या कर सकता हैं. मेरे अनुपस्थिति में मेरे लिए माँ का पत्र आना की सबिया अब ससुराल में रहती हैं जानकर अच्छा लगा था ,यह सोच कर की शायद उसे ससुराल वालों ने अपना लिया हो लेकिन क्या यह वही सबिया हैं जो अपनी मेंहनत मजदूरी के लिए पग-पग भटक रही हैं ?
उसे पड़ोस में कपडे धोते देखकर जिज्ञासावश मेरे पैर उसी ओर बढ़ गए. सबिया यह क्या ? तुम…… ‘सब किस्मत का खेल हैं दीदी. ‘ उसका संक्षिप्त उत्तर था. उसका किस्मत वाले शब्द ने मुझे बुरी तरह झकझोर के रख दिया. क्या हो गया उस हँसते-खिलते चेहरे को. मैं कुछ पुछ भी न सकी. लौट आई अपने कमरे में.
अलमारी में सजी पुस्तकों में से एक पुस्तक निकालकर अनमने मन से बिस्तर पर लेटे-लेटे पढने लगी. ‘शालिनी’ माँ की आवाज मेरी कानों में आ टकराई. ‘जी’ मैं उठने लगी तब तक माँ कमरे के अन्दर दाखिल हो चुकी थी. ‘शालू पवन आया हैं. ‘ माँ बताकर चली गई. पवन मेरा सहपाठी हैं. जब भी मैं घर आती हूँ वह मुझसे मिलने जरुर आता हैं. अध्धयन समाप्त कर वह यंही के स्थानीय एक स्कूल में टीचर बन गया हैं.
मैं उठी और बैठक खाने की और चल पड़ी. पवन कोई पत्रिका में खोया हुआ था. ‘हेल्लो पवन ,कैसे हो ?’
‘अच्छा हूँ ,पर तुम इतना उदास क्यों हो?’ क्या शहर में बसकर गाँव को भूल गयी ?’
‘यह बात नहीं हैं. ‘
‘तो क्या बात हैं ?’ पवन ने मजाकिया अंदाज में पुछा था.
‘मैं एक बात सोच रही हूँ. ‘
‘बस तुम लेखकों को तो सोच के सिवा कुछ नहीं आता. पवन जानता हैं कि मुझे कॉलेज के दिनों से ही लिखा करती हूँ.
‘क्या मैंने गलत कहा ?’ पवन ने मुझे चुप होता देख पुछा था. ‘यह बात नहीं हैं. मैं सबिया के बारे में सोच रही हूँ. तुम्हे पता हैं न ! सबिया जो हमारे घर में रहा करती हैं.
‘क्या हुआ सबिया को ?’
‘वह मजदूरी करती हैं. ‘
‘करती होगी. ‘ पवन ने लापरवाही से कहा. उसकी इस बात पर मेरा चेहरा गंभीर हो गया था. मेरी गंभीरता को भांपकर वह भी गंभीर हो गया. ‘क्या बात हैं शालिनी क्या सचमुच तुम सीरियस हो ?’
‘हाँ पवन, मैं सबिया के बारे में जानना चाहती हूँ. ‘शालिनी की जिज्ञासा भरे मनको देखकर पवन ने उसे संक्षिप्त में सबिया के बारे में बताया था. ससुराल में जाने के बाद हैदर को टी.बी. हो गया था. इलाज कराते-कराते जमा रूपये ख़त्म हो गए थे. सबिया की सास और नन्द ने उसका जीना हराम कर दिया था. डॉक्टर की सलाह थी कि हैदर को लम्बी आराम कि सख्त जरुरत है. हैदर का काम छुट गया. बच्चे भूखे-प्यासे बिलखने लगे. मगर उसकी सास हैदर को ही खाना देती. न जाने हैदर को भी क्या हो गया ,वह चुपचाप अकेले ही खाना खा लेता था. मौसम और इंसान का दिल बदलने में समय नहीं लगता. एक माँ भला भूखे-प्यासे बच्चे कि तड़प कैसे सहन कर पाती. सबिया ने लोगो के घर-घर काम करना शुरू कर दिया.
पवन चला गया. मैं वापस फिर कमरे में आ गयी. मैं उन दोनों के बारे में सोच ही रही थी की बाहर किसी ने पुकारा था.
‘दीदी’ बाहर आई तो देखा बरामदे में सबिया खड़ी थी. ‘अरे ,सबिया तुम! आओ अन्दर आओ. ‘ कौन हैं शालू ?’माँ ने रसोई से ही पूछा था. ‘सबिया हैं माँ. ‘
बेचारी को इस उम्र में इतना कष्ट झेलना पड़ रहा हैं ,माँ बड़बड़ाई थी.
‘कैसी हो तुम ? ‘ क्या बताऊ ,दीदी ,आपने देख तो लिया हैं. उसका संकेत सुबह पडोसी के घर देखने का था. ‘हैदर की बुद्धि को क्या हो गया ?क्या तुम दोनों वही हैदर-सबिया हो ?’जो पाँच साल पहले हुआ करते थे. ‘दीदी समय के साथ-साथ सब कुछ बदलता हैं. वह हैदर और इस हैदर में बहुत फर्क हैं. वर्ना ससुराल में जाते ही वह क्यों बदल जाता, माँ जी और ननद जी जी कहने पर उसने मुझे कई बार पिटाई भी की हैं. एक बार हाथ टूटते-टूटते बचा. कई रोज बाद इलाज करके अच्छा हुआ था. सबिया की बाते सुन मेरा दिल छलनी हो गया. वह चली गई. न जाने क्यों आज मैं उजाले के साथ आँख मिचोली खेलने लगी थी. मैं बिस्तर पर लेट गयी. सुबह फोन की घंटी से नींद टूटी. ‘कौ…….न ?’ मैंने अलसाए स्वर में पूछा था. ‘मैडम मैं महिला समिति की बिरुबारी शाखा से बोल रही हूँ. सभी जगह से महिलायें इकठ्ठा हो गयी हैं. दस बजे गुवाहाटी क्लब से ‘जुलुस’ जर्ज फिल्ड के लिए रवाना होगा. बस हम आपका ही इन्तजार कर रहे है. ‘
‘आप लोग तैयार रहे मैं आती हूँ कहते हुए मैंने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया.
दिवार पर टँगी घडी पर मैंने नजरे दौड़ाई. सुबह के सात बज रहे थे. मुझे दो घंटे का रास्ता तय करना था. मैं झटपट उठी. माँ को पता था मुझे आज जाना हैं.
‘शालू कौन सी साडी पहनोगी ?’ माँ ने पूछा था. ‘सफ़ेद साडी निकाल दो माँ. ‘ मैंने बाथरूम से ही आवाज लगाई थी. पौने दस बजे गुवाहाटी क्लब पहुँच गयी थी मैं. उस जुलुस का नेत्रित्व मुझे ही करना था. मैं उस जुलुस की भीड़ में समा गयी. उस भीड़ में मेरे नारे के साथ-साथ महिलाओं के नारे भी बुलंद हो रहे थे. और मेरी आँखों के सामने सबिया जैसे अनगिनत चेहरे आकर टकराने लगे थे. लेकिन मैं उन चेहरे को न चाहते हुए भी गेंद की भांति रौंदती हुई आगे बढती गयी.
— रीता सिंह ‘सर्जना’