कविता

कविता : उफ़क़ पर

 

जब कभी तुम्हे कुछ पल मिले,
अपने गैर जरूरी लम्हों से…
उस पल, जब तुम भी खोये हो…
मेरे ख्यालों में… और मैं तुम्हारे …
तब आना ले फ़क़त फ़ुर्सत मेरे हिस्से की।

कोई फ़र्क नही पड़ता मुझे,
तुम आओ तो…
शफ़क़ हो या कोई काली स्याह शब,
शबनमे -अफसानी हो या तेज बरसता पानी,
मेरे लिए तो वह…
आलमे -ख्वाब ही होगा…
जहाँ मैं हर वक़्त, तेरे साथ ही रहती हूँ।

चाहो तो खोजना, मुझे कहीं भी…
मिल जाऊँगी, बीनती कुछ
पत्थर, काँटे और मुरझाये फूल, राहों में।
मिलकर रख देंगे उन्हें सजाकर, करीने से
किनारे,
किसी राहगीर की चुभन, नही मंजूर मुझे।
उस पल…
रखना बंद ये शब अपने, क्योकि गैर जरूरी है
तुम्हारे अल्फ़ाज़, हमारे दरमियां…
मुझे तुम्हारी ख़ामोशी, तुम्हारे पास होने
का अहसास जो कराती है

फलक में बिखरे, शबके का टूटता सितारा
बन जाऊं, जब तुम्हारे लिए…
रखना मुझे सम्भाल कर, अपनी पलकों
में कहीँ…
क्योंकि गिर पड़ी तो, टूट ही जाऊँगी।
बेशकीमती जो हूँ, तुम्हारे लिये,
टुट गयी, तो जुड़ न पाऊँगी दोबारा।

आना,
मुख़्तसर ही सही, इक कतरा तय करेंगे
सफर का, हाथ पकड़, एक दूजे का।
तेरे लम्स से ही तस्कीन करूँगी कि…
तुम कभी दूर थे ही नही,
यही थे, इन नज़ारों में, इंतज़ार करते मेरा।

देखो…
यह नीला फिरोज़ी आसमां, पानी और ज़मी
से मिल, दूर कहीं
उफ़क़ बना रहा है …
अज़ल से धोखा देता आया है,
इक हसीं मिलन का…।

तो, आओ …
आज हम भी मिले अपने ख्यालों के
उफ़क़ पर,
शिद्दत से मांगें हाथ, एक दूजे का…
सुना है मैने,
शिद्दत और तलब से की दुआ ही
खुदा के दर पर, मंजूर होती है।
तभी हम, अधूरे से…
होंगे पूरे, हमराही बनकर, इस राह पर।

मंजुला बिष्ट

मंजुला बिष्ट

बीए, बीएड होम मेकर, उदयपुर, राजस्थान