राजनीति

मज़हबी जुनून और सभ्य समाज

कोई सप्ताह भर पहले जब मैं सिलीगुड़ी के हिलकार्ट रोड से गुज़र रहा था कि अनायास ट्राफिक जाम के कारण मुझे कुछ समय के लिए ठहर जाना पड़ा। तभी मेरी निगाह शहर के राजपथ से गुज़रते हुए एक मज़हबी जुलूस पर जा टिकी। बेशक जुलूस काफ़ी बड़ा था जिसे देखने से मुझे ऐसा लगा कि इसके पीछे खासी दिमागी व ज़मीनी तैयारी की गयी होगी। बहरहाल ट्राफिक जाम में फंस जाने से लोग अधिक परेशान थे। जुलूस की खासियत पर जब हमने गौर किया तो पाया कि मर्दों की बनिस्बत औरतों की तादात कहीं अधिक है। हालांकि मुस्लिम बिरादरी अपनी पर्दानशीन औरतों को ज़ाहिर है आम सड़क पर उतरने से अक्सर परहेज करती है। मर्द शासित समाज में मज़हबी जुलूस की यह जो नायाब शक्ल थी, उसे देख कर मैं अचरज में पड़ गया…!
‘क्या वाक़ई मुस्लिम बिरादरी की आम औरतें अपने हक़-हक़ूक़ के प्रति अब सजग हो रहीं हैं…?’ हक़परस्त होना कतई बुरी बात नहीं है। अपने वाजिब हक़ को ले अगर कोई सम्प्रदाय उद्बेलित होता है तो यह उसके जाग्रत होने का पमाण है। प्रतिरोध की संस्कृति की मुख़्ाालफ़त करना यक़ीनन हमने कभी नहीं सीखा। हमेशा से ही हमने हर तरह के शोषण-दमन व असमानता के खिलाफ़ आवाज़ उठायी है। लेकिन अपने आंदोलन के मक़सद को जाने बग़ैर उसका अहम हिस्सा बन जाना मैं कतई मुनासिब नहीं समझता। ज़ाहिर है कोई भी अक़्लमंद इंसान भेड़ों के झुण्ड में शामिल होना पसंद नहीं करेगा। हम सोच में पड़ गये! ‘अपने किस नागरिक अधिकार को ले ये महिलायें इस क़दर आंदोलित हैं जो मज़हबी जुलूस में मर्दों से आगे अपने क़दमताल मिला रहीं…! उन औरतों के मर्द, पिता अथवा भाई उन्हें समाज व अपने घर-परिवार में बराबरी का दर्जा दिलाना चाहते हैं, या इसकी वजह कुछ और है…?’ इस सवाल ने मेरे मगज़ में खलबली मचा दी!
ऐसे तो इस शहर में किसी जुलूस का आम सड़क पर निकलना अथवा धरना व प्रदर्शन होते रहना कोई खास बात नहीं है। उचित-अनुचित मसलों को लेकर अक्सर राजनैतिक दल अपने आंदोलन करते ही रहते हैं। आम-अवाम आम सड़क पर होने वाले सभा-जुलूस व धरना-प्रदर्शनों से उत्पन्न दिक्कतों से मुठभेड़ करते रहते हैं। अमला व नेताओं के संरक्षण में गुण्डे-मवालिओं के सड़क-जाम आंदोलन, उनके खूनी भिडंत तथा खौफनाक ताण्डव से लोग वाकिफ़ हैं। ज़्यादाकर इनके शिकार निर्दोष नागरिक होते हैं, फिर भी हमारे शहर व समाज के लिए ये परेशानी के सबब नहीं हैं। कारण कि लोग-बाग इनसे अभ्यस्त हो चुके हैं। किसी भीड़ का हिस्सा होने का कतई यह मायने नहीं है कि आप अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जाग्रत हो रहे या सचेष्ट हैं। बहुत बार आप भीड़ में खुद अपने ही खिलाफ़ चल रहे होते हैं। लेकिन इसकी ज़रा भी खबर तक आपको नहीं होती। बूचड़खाने का भी अपना विज्ञान होता है। खास विधान होता है। यह कोई ज़रूरी नहीं कि वहां कटने वाले भेड़ों व अन्य पशुओं को इसकी मुक़म्मल जानकारी करा दी जाय। बूचड़खाने के आगे भेड़ों की लंबी क़तार देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके लिए वहां पर्या’ भोजन-पानी की व्यवस्था है। लेकिन यह अनुमान गलत भी साबित हो सकता है। सच बात तो यह है कि भेड़ खुद ही अपनी मर्जी से गर्दन कटाने को ले एक-एक कर उस स्थान पर चले जाते हैं…। कोई प्रतिरोध नहीं। कोई आंदोलन नहीं। बेशक कोई बोध नहीं। प्रतिरोध के लिए बोध का होना ज़रूरी है। बूचड़खाने का मालिक कभी यह नहीं चाहेगा कि उसके भेड़ों में मृत्युबोध का अविर्भाव हो। अगर वह ऐसा करने लगे तो फिर उधका धंधा ही चौपट हो जायेगा।
आपको पता होना चाहिए कि आम रास्ते व चौक-चौराहों पर नित हो रहे पारंपरिक व मज़हबी कार्यक्रमों के चलते शहर में ट्राफिक जाम की समस्या से प्राय: रोज़ ही राहगीर गुज़रते हैं। बेहद परेशान होते हैं। अप्रिय हादसों के शिकार होते हैं। दरअसल उनमें आप और हम भी शामिल हैं। दरअसल आम नागरिकों की परेशानियों को बढ़ाने में शासन-प्रशासन की भूमिका को हम कदापि नजरअंदाज नहीं कर सकते। हमने सब कुछ सहज क़बूल कर लिया है। बेचारे एक साधरण सिपाही की क्या औक़ात है जो वह किसी राजनैतिक दल विशेष अथवा मज़हबी जुलूस व धरना-प्रदर्शन या अन्य किसी खास धार्मिक जमात के गैरक़ानूनी कृत्यों पर अपना रौब दिखाये! संसदीय राजनीति के पाखण्ड ने पूरे देश व समाज को एक अराजक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। राजपथ पर आयोजित धार्मिक अनुष्ठानों व पूजा-पण्डालों के निर्माण की अनुमति कौन दे रहा? इसे आप क्या कहेंगे! धार्मिक आज़ादी का यह अर्थ नहीं है कि हम दूसरों की आज़ादी को अतिक्रमित करें। बेशक ऐसे अनुष्ठानों में धार्मिकभाव कम होता है जबकि प्रदर्शन का भाव अधिक। इस भीड़ का भी अपना एक विज्ञान है। ज़ाहिर है कोई बात अचानक किसी की मननशीलता में अपनी जगह नहीं बना लेती। नौकरशाह और सिपाही तो सिर्फ़ सरकारी हुक़्म की तामील करने के लिए ही होते हैं। हम धार्मिक व मज़हबी लोग अपने वैयक्तिक स्वार्थ में बड़े ही शातिराना तरीक़े से मज़हबी जुनून पैदा करते हैं और धर्म व शरीयत की आड़ में बहुत बार मनुष्य विरोधी कार्यों को करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। एक इन्साफ़पसंद इंसान को तक़लीफ तब पहुंचती है जब राज्य-प्रशासन जिस पर अपने नागरिकों के संविधान प्रदत अधिकारों को सुनिश्चित करने की जवाबदेही होती है, वह इस मामले में खुद को बिल्कुल विवेकशून्य तथा क्लीव साबित करता है। आम सड़क व राजपथ पर दुर्गा पूजा, काली पूजा, व अन्य पूजा-पण्डालों के नर्माण, छोटे-बड़े मज़हबी आयोजन, जैसे इद -उल फ़ितर, इद-उद जुआ के समय नमाज़ का अदा किया जाना आदि जिनके कारण घंटों सड़क जाम की विकट समस्या से आम-अवाम को गुज़रना पड़ता है। ज़ाहिर है एक बीमार आदमी सही समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाता। और कई बार बीच रास्ते में ही अपना दम तोड़ देता है। एक गर्भवती महिला जो भीषण प्रसव वेदना से गुज़रती हुई बीच सड़क पर अपनी संतान जनने पर मज़बूर हो जाती। न जाने दिल दहलाने वाले कितने हादसे आये दिन हमारी नज़र से गुज़र जाते हैं। हमारे विवेकद्बार पर दस्तक दे जाते…! फिर भी हमारा विवेक जाग्रत नहीं होता। सिर्फ़ इस शहर में ही नहीं बल्कि पूरे देश में यह जो मज़हबी व फिरकापरस्ती तथा धार्मिक का उन्माद का दौर चल रहा है, क्या यह हमारे संसदीय गणतंत्र के खोखलेपन व पाखण्ड को अभिव्यक्त नहीं कर रहा…? वोट की राजनीति ने हमारे औसतन नेताओं को पतित बना दिया है।
खैर इसे आप जाने दीजिए, आइए हम अपने मुद्दे की बात करें। मर्दों के मजमे का नेतृत्व कर रहीं महिलाओं के हाथ में तख्तियां थीं जिनके मज़मून से जुलूस का मक़सद समझते मुझे देर न लगी…। दरअसल मुस्लिम पर्सनल लॉ के समर्थन में तथा तीन तलाक के मुद्दे पर केंद्र सरकार व न्यायपालिका के हस्तक्षेप के खिलाफ़ महिलाओं का यह जुलूस सिलीगुड़ी वेलफेयर नौजवान कमेटी की ओर से तीन तलाक,हलाला निकाह, तथा बहुविवाह के पक्ष में निकाला गया था। जुलूस में शामिल एक-दो साक्षर युवतियों से इस संबंध में जब मैंने जानने की कोशिश की तो ज्ञात हुआ कि उनके मर्दों ने उन्हें पूरी बात बतायी ही नहीं है और इमाम साहब ने तो उन्हें जन्नत के क़िस्से बताकर शरीयत पर यक़ीन रखने को कहा है। साथ ही उन्हें समझाया गया था कि शरीयत क़ानून के खिलाफ़ केंद्र सरकार सियासत कर रही और सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप। इस मसले को ले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से भी जोर-शोर से आंदोलन करने का उन्हें निर्देश मिला है…।
आप जानते हैं अर्से से देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर सोचा जा रहा है। समाज के सभी तबकों में इसकी चर्चा है। इस सवाल पर क्या हमें संजीदगी से नहीं सोचना चाहिए? विभिन्न धर्म-समाज व सम्प्रदायों की तरह ही हिंदू समाज भी बुराइयों से ग्रस्त रहा है। लेकिन आप जानते हैं इनमें निरंतर सुधार भी होते रहे हैं। हिन्दुओं में कई महापुरुष पैदा हुए, ईश्वरचंद विद्यासागर, राजाराम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती इत्यादि। इन सबों ने अपने स्तर व तरीके से हिन्दू धर्म व समाज में सदियों से चली आ रही कतिपय विकृतियों तथा कुरीतियों पर तार्किक व वैचारिक चोट कर अनेक सुधार किये। हिन्दू धर्म-समाज को अब भी अनेक सुधार की ज़रूरत है। जबकि मुस्लिम सप्रदाय में सुधार आंदोलन का ऐसा इतिहास नहीं रहा। इस्लामी कट्टरता व फिरकापरस्ती के खिलाफ़ सूफी मत आया ज़रूर मगर मुस्लिम सप्रदाय में उसका वह प्रभाव नहीं पड़ा जो पड़ना चाहिए था। ज़ाहिर है इसकी वजह भी मज़हबी कट्टरता ही रही…। जबकि अन्य धर्म-समाजों में भी कतिपय सुधार होते रहे हैं। दरअसल यह एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है जो सदैव चलती रहनी चाहिए। हमें यह बात समझनी होगी कि धर्म-समाज व सप्रदाय कोई जड़ पदार्थ नहीं है। जो समाज परिवर्तन को स्वीकार नहीं करता ज़ाहिर है वह अपना अस्तित्व खो देता है। जीव विज्ञान भी इस नियम से परे नहीं है। चूंकि इस्लाम का उद्भव ट्राइबल सोसाइटी में हुआ था, इसलिए ट्राइबल क्रूरता से वह प्रभावित रहा है। उसमें दार्शनिक सहनशीलता की कमी है। चंद भारतीय आधुनिक मुस्लमान काफ़ी हद तक इस्लामी फिरकापरस्ती से मुक्त हो चुके हैं। उनमें धर्मनिरपेक्षता व लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान है। उनके लिए तीन तलाक तथा शरीयत क़ानून कोई मायने नहीं रखते। उनके शिक्षा-संस्कार भी काफ़ी हद तक परिमार्जित चुके हैं। जबकि अब भी भारत में मुस्लिम सप्रदाय का एक बड़ा तबका परंपरा के अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाया है। 21वीं शताब्दी में भी जो लोग शरीयत के क़ानून को टिकाये रखने के पैरोकार हैं उनसे मैं एक सवाल पूछना चाहूंगा। शरीयत के क़ानून के मुताबिक ज़ाहिर है आप अपनी एक से अधिक बीवियों के साथ सुकून से रह सकते हैं, तो का ऐसा ही अधिकार आप अपनी उन बीवियों को भी देना चाहेंगे? ज़ाहिर है आपका जवाब नहीं में होगा। युग बदल रहा, समाज करवटें ले रहा तो हमें भी खुद को बदलने का प्रयास करना चाहिए। आधुनिक हो रहे समाज व लोकतांत्रिक देश में शरीयत के क़ानून को टिकाये रखने के अपने खतरे हैं। एक मज़हबी अभिशाप जिसे आप अर्से से ढोते आ रहे, उस भार को उतारने की दिशा में थोड़ा य‘ करें। ज़रा सोचिए जब आपके घर की महिलाएं इंसाफ़ पाने की एक उम्मीद ले सुप्रीम कोर्ट में जाती हैं तो अदालत को क्या करना चाहिए…? न्याय व्यवस्था सबके लिए क्या बराबर नहीं होनी चाहिए? निश्चित तौर पर तीन तलाक औरतों के मानवाधिकार का उलंघन है। यह सुकून की बात है जो अपनी सामाजिक गैरबराबरी को ले महिलायें अदालतों में जा रहीं और अपनी आवाज़ उठा रहीं। यह किसी हिन्दू अथवा मुसलमान के बीच की लड़ाई नहीं है। मुस्लिम महिलाओं की यह जंग उनकी अपनी अस्मिता के लिए है। अपने नागरिक अधिकारों को हासिल करने के लिए है।
आधुनिक हो रहे समाज की सजग चेतना निश्चित ही अपनी राह खुद ही तय करेगी। इंसाफ़पसंद इंसान को चाहिए कि वे मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में अपनी सामाजिक भूमिका सुनिश्चित करें।
डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह
संपादक: आपका तिस्ता-हिमालय
अमरावती
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