ईश्वर का अस्तित्व आदि व अन्त से रहित है
ओ३म्
हम संसार में देखते हैं कि प्रत्येक पदार्थ का आदि अर्थात् आरम्भ होता है और कुछ व अधिक काल बाद उसका अन्त वा समाप्ति हो जाती है। आदि शब्द जन्म के लिए भी प्रयुक्त होता है और अन्त शब्द को मृत्यु के रुप में भी जाना जाता है। विश्व का अधिकांश भाग व लोग ईश्वर के अस्तित्व को मानने वाले हैं। हमारी दृष्टि में इस विश्वास का कारण वेद हैं। सृष्टि के आदि में ईश्वर के द्वारा वेद उत्पन्न हुए थे जो विषय व संख्या के अनुसार चार हैं। इनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। इन वेदों के मुख्य विषय क्रमशः ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान हैं। ऋग्वेद के पहले ही मन्त्र में कहा गया है कि मैं ज्ञान व प्रकाश स्वरुप ईश्वर की स्तुति करता हूं। ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि नामी ऋषि को ईश्वर ने दिया था। अतः सृष्टि में प्रथम उत्पन्न शरीरघारी जीवात्मा वा ऋषि को यह ज्ञात था कि संसार में एक ईश्वर नाम की चेतन व ज्ञानवान सत्ता है जिसकी की सभी मनुष्यों को स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये। वेदों का सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक विश्व भर में प्रचार रहा है। यही कारण रहा कि महाभारत काल के बाद आर्यों के आलस्य व प्रमाद के कारण व वेदों के प्रचार व प्रसार में बाधा आने पर भी वेदों के यथार्थ ज्ञान के लुप्त प्रायः हो जाने पर भी संसार के अधिकांश लोग परम्परा से ईश्वर को किसी न किसी रूप में मानते रहे। समय के साथ अन्धकार बढ़ता गया जिसके परिणाम स्वरुप विश्व में अनेक अन्धविश्वास व रूढ़ियां प्रचलित हो गईं और समाज जर्जरित व विश्रृंखलित हो गया।
ईश्वर की कृपा और भारतीय आर्यों के सौभाग्य से गुजरात के मोरवी प्रान्त के टंकारा कस्बे में पं. करषन जी तिवारी के यहां 12 फरवरी सन् 1825 ई. को बालक मूलशंकर का जन्म हुआ जो बाद में महर्षि दयानन्द जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ व संकल्प शक्ति के आघार पर वेद एवं वैदिक साहित्य का गहन व तत्व-ज्ञान-परक अध्ययन किया जिससे वह वेदों के मर्मज्ञ व यथार्थ वैदिक ज्ञान से सम्पन्न हो गये। उन्होंने मथुरा के गुरु विरजानन्द सरस्वती से आर्ष व्याकरण और वैदिक सिद्धान्तों का अध्ययन किया था। ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने वेद वा वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार को अपने जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य बनाया। उन्होंने प्रचार आरम्भ किया और 30 अक्तूबर, 1883 को मृत्यु होने तक जीवन की अन्तिम श्वांस तक दयानन्द जी ने वेदों का प्रचार किया। न केवल प्रचार ही किया अपितु वेदों के प्रचार प्रसारार्थ ही अपने प्राणों व जीवन का भी बलिदान किया।
ईश्वर का सच्चा स्वरूप क्या है? इस विषय में महर्षि दयानन्द के कार्य क्षेत्र में प्रविष्ट होते समय देश देशान्तर में अनेक मत व विचारधारायें थीं। ईश्वर व जीव को एक भी माना जाता था और ईश्वर को साकार, निराकार व ईश्वर का अवतार आदि भी मानते थे। अन्य भी अनेक मिथ्या मान्यतायें प्रचलित थी। महर्षि दयानन्द ने अपने वैदिक ज्ञान के आघार पर असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन किया और वेद के प्रमाणों से बताया कि ईश्वर सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द-स्वरूप), निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वदेशी, सर्वदर्शी, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, अनादि, अनन्त, अजन्मा, अमर, नित्य व सृष्टिकर्ता है। अपनी समस्त वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि अनेक ग्रन्थों की रचना भी की। उन्होंने ईश्वर के विषय में जिन मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया उनका वेद, इतर वेदानुकूल शास्त्र, तर्क व युक्ति आदि प्रमाणों के द्वारा स्पष्टीकरण व मण्डन भी किया व अपनी सभी मान्यताओं को सृष्टि क्रम के अनुकूल सत्य सिद्ध किया। ईश्वर अनादि, अजन्मा, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर व अनन्त है। अनादि का अर्थ है जिसका आरम्भ न हो अर्थात् वह सदा से हो। इसका अर्थ है कि ईश्वर पूर्वकाल में सदा से है। कभी कोई ऐसा समय नहीं था जब कि ईश्वर न रहा हो। अजन्मा का अर्थ कि जिस प्रकार मनुष्य अपने माता-पिता से जन्म लेता है, वैसा ईश्वर के साथ नहीं होता। ईश्वर के माता-पिता नहीं हैं। वह स्वयं सिद्ध और स्वयं भू सत्ता है। उसे अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य अपने समान व बड़ी सत्ता की अपेक्षा नहीं है। वही सृष्टि की सबसे बड़ी व महानतम् सत्ता है। वह न तो जन्म लेती है, न उसका कभी जन्म हुआ और न ही उसकी कभी मृत्यु व अन्त होगा। वह सदा से है और सदा रहेगी। नित्य का अर्थ भी आ चुका है कि जो सदा से हो और सदा रहे उसे नित्य कहते हैं। ईश्वर सदा से होने व सदा रहने के कारण से ही नित्य कहा जाता है। हमने ईश्वर के लिए अनुत्पन्न शब्द का भी प्रयोग किया है। ईश्वर स्वयंभू व स्वयंसिद्ध होने के कारण उसे किसी अन्य पदार्थ व कारण से उत्पन्न होने की किंचित व किसी प्रकार से अपेक्षा नहीं है। वह उत्पत्ति धर्म से रहित है। अविनाशी का अर्थ है जिसका कभी विनाश व अन्त न हो। अमर का अर्थ है कि जो कभी मरे नहीं अर्थात् सदा जीवित रहे। अनन्त का अर्थ है कि जिसका अन्त नहीं होता। अन्त न होने से ही ईश्वर अनन्त कहा व माना जाता है। ऐसा स्वरूप ईश्वर का है। यदि ईश्वर का ऐसा स्वरूप न होता तो वह अनादि व नित्य कारण सूक्ष्म जड़ त्रिगुणात्मक प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण न कर पाता, न ही पालन कर पाता और तब अनादि व नित्य जीवात्मायें इस संसार में होकर भी कर्मानुसार जन्म न पाकर अपने अस्तित्व को सार्थक न कर पाती।
अतः संसार में इस सृष्टि के बनाने व इसे चलाने वा पालन करने वाले ईश्वर का अस्तित्व तर्क व वेद के प्रमाणों से सिद्ध है। इसके साथ यह भी सिद्ध है कि ईश्वर अनादि, अजन्मा, नित्य, अमर, अनन्त व अविनाशी भी है। ईश्वर का यह जो स्वरूप है वह महर्षि दयानन्द सरस्वती के कारण हमें व सारे संसार को विदित हुआ है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर सहित जीवात्मा और त्रिगुणात्मक सूक्ष्म जड़ प्रकृति को भी अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर व अविनाशी बताया व सिद्ध किया है। ईश्वर, जीव व प्रकृति के इस त्रैतवाद नामक सर्वोत्तम एवं सत्य सिद्धान्त को देने के कारण महर्षि दयानन्द का सारा संसार ऋणी है। जब तक यह संसार है और इसकी प्रलय नहीं होती, यह संसार और आने वाली सभी पीढ़िया महर्षि दयानन्द की ऋणी रहेंगी। महर्षि दयानन्द ने केवल त्रैतवाद का सिद्धान्त ही नहीं दिया अपितु अनेकानेक सिद्धान्तों सहित ईश्वर की सच्ची स्तुति, प्रार्थना व उपासना के लिए सन्ध्या की विधि और यज्ञ अग्निहोत्र का महत्व समझा कर उसे प्रत्येक आर्य व इतर सामान्य मनुष्य के लिए करना अनिवार्य बताया है। ऋषि दयानन्द यह भी प्रावधान करते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है, यह ज्ञान सृष्टिक्रम के सर्वथा अनुकूल व अनुरुप है, अतः इसका पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी श्रेष्ठ व सज्जन मनुष्यों का परम धर्म है। जो वेद की आज्ञा का पालन नहीं करेगा वह ईश्ष्वर के विधान के अनुसार इस मनुष्य जन्म व भावी जन्मों में दण्डित व दुःख पायेगा। अतः सभी विवेकी मनुष्यों को वेद की शरण में आना चाहिये और इसके लिए सीढ़ी व मार्ग के रूप में सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन उपयोगी होता है। हम आशा करते हैं कि लेख से पाठकों को विषय स्पष्ट होगा। इसी के साथ इस चर्चा को समाप्त करते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य