कोरा कागज़
हाँ ! मैं कोरा कागज हूँ
सबसे अलग हूँ ।
लिखना बहुत सोच समझ कर
मत करना गंदा
मेरे वजूद को
मैं बहुत पाक हूँ ।
हूँ जब तक कोरा
तब तक खास हूँ ।
बहुतों ने लिखा मुझ पर
और हो गए अमर ,
मत लगाना कालिख मुझ पर
हूँ मैं तो रोशनाई से रोशन ।
लिखना कुछ ऐसा
कि हो गर्व अपने पर,
हर शब्द है मुझसे रोशन-
जब मैं निहारता हूँ प्रत्येक उम्दा शब्द को
तो खुशी से नि:शब्द हो जाता हूँ ।
रह कर कोरा
मैं बहुत खश हूँ,
दाग युक्त करके
मत छोड़ देना मुझे,
रूह मेरी भी दुखती है ।
मेरे पाक दामन पर
प्रेम की रंगीन स्याही से
कर देना कुछ ऐसा चिंह्नित,
ताउम्र याद करूँ तुमको ।
संभालना कोरे कागज़ को
है आता नहीं सबको ।
करके नापाक –
कूडे कचरे में छोड़ दिया जाता है।
गर नहीं दे सकते अपनत्व
तो मुझे पाकीजा ही रहने दो ,
क्यों लेते हो मेरा हाथ –
अपने हाथ में ।
छू कर क्यों करते हो मैला
अनछुए की पीड़ा
सह ली जाती है,
पर मैला होकर भार ढोना ,
असहनीय हो जाता है ।
हाँ ! मैं कोरा कागज हूँ
मुझे पाक ही रहने दो ।
लिख सको तो तुम
ढाई अक्षर प्रेम के लिख दो,
अन्यथा मैं कोरा था
मुझे कोरा ही रहने दो ।
हाँ ! मुझे कोरा ही रहने दो ।।
— निशा नंदिनी गुप्ता
तिनसुकिया, असम