किसी गुरू की नहीं और किसी न चेले की
किसी गुरू की नहीं और किसी न चेले की
ग़ज़ल नहीं है बपौती किसी अकेले की
चला रहे हैं वतन आज हुक्मरां ऐसे
नहीं है जिनमें कोई अक्ल एक धेले की
ये सोच को भी गिरा देगी एक दिन तेरी
खरीदने से बचो चीज़ कोई ठेले की
बताऊँ क्या है मुहब्बत तो सुन लो बस इतना
ये चीज़ काम की है पर बड़े झमेले की
वो भीड़ में तेरी नज़रों से नज़रें टकराना
मुझे हैं आज तलक याद बात मेले की
बहुत है दूर करेले सी बात करना तो
न खाई चीज़ तलक भी कभी करेले की
— महेश कुमार कुलदीप ‘माही’
01 दिसम्बर, 2016