कविता

नारी उत्पीड़न

(नारी उत्पीड़न)

नारी की विवशता को
आजतक किसने समझा है
सदियों से तो…..
वो रोती, कलपती, बिलखती ही आई है
कभी बेटी रूप में कभी पत्नी रूप में
तो कभी माँ बनके
अपनों के द्वारा सताई गई है
आज भी, हाँ आज भी!
उसकी आजादी दायरे के चौखट
पर अपना दम तोड़ती है
जिसतरह गाय,भैस की जिंदगी
खूंटे से बंधी होती है
एक परिधि में छटपटाती हुई
घुट-घुट कर जीती है या यूँ कहे
हर रोज वह मरती है
फिरभी, दहलीज पार नहीं करती है
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर रिस्ते को
सहेजे, समेटे रखती है घर,परिवार के
मान-सम्मान को अपना अभिमान समझती है
मर जाती है हँसते-हँसते पर, अपनों पर
एक आँच तक नहीं आने देती है
निःस्वार्थ उसका प्रेम सबको सुख देती है
पर बदले में उसे उत्पीड़न ही मिलती है
आखिर क्यों ?
जीवन में तप, परिश्रम, समर्पण
त्याग सबकुछ तो करती है
फिरभी उसकी झोली खुशियों से
खाली क्यों ? रहती है
ऐसी संरचनाएँ ,व्यवस्थाएं
बनाई ही क्यों ? जाती है
घर परिवार व समाज में
जहाँ औरतों की आजादी उनकी
खुशियाँ बाँध दी जाती है
अनंत सीमाओं में
आखिर, इतनी असमानताएं
आदमी और औरत के बीच क्यों ?
नारी की वर्तमान दशा
आज बदलाव चाहती है
वर्ना आने वाले वक़्त में
नारी उत्पीड़न बन न जाए
विष के समान जिसके जहर से
खत्म हो जाए ये दुनियाँ, जहाँन।
याद रखना!
जिस धरती पर नारी का सम्मान नहीं
उस धरती पर सृष्टी का उत्थान नहीं है।

*बबली सिन्हा

गाज़ियाबाद (यूपी) मोबाइल- 9013965625, 9868103295 ईमेल- bablisinha911@gmail.com